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Tuesday 17 February, 2009

श्रीगुरुजी और राष्ट्र-अवधारणा

अध्‍याय -1
राष्ट्र और राज्य


राष्ट्र, राष्ट्रीयता, हिन्दू राष्ट्र इन अवधारणाओं (concepts) के सम्बन्ध में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक (1906 से 1973) श्री माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर उपाख्य श्री गुरुजी ने जो विचार समय-समय पर व्यक्त किये, वे जितने मौलिक हैं, उतने ही कालोचित भी हैं। एक बड़ी भारी भ्रान्ति सर्वदूर विद्यमान है जिसके कारण, राज्य को ही राष्ट्र माना जाता है। 'नेशन-स्टेट' की अवधारणा प्रचलित होने के कारण यह भ्रान्ति निर्माण हुई और आज भी प्रचलित है। स्टेट (राज्य) और नेशन (राष्ट्र) इनका सम्बन्धा बहुत गहरा और अंतरतम है, इतना कि एक के अस्तित्व के बिना दूसरे के जीवमान अस्तित्व की कल्पना करना भी कठिन है। जैसे पानी के बिना मछली। फिर भी पानी अलग होता है और मछली अलग, वैसे ही राज्य अलग है, राष्ट्र अलग है। इस भेद को आंखों से ओझल करने के कारण ही, प्रथम विश्व युध्द के पश्चात्, विभिन्न देशों में सामंजस्य निर्माण करने हेतु जिस संस्था का निर्माण किया गया और जिसके उपुयक्तता का बहुत ढिंढोरा पीटा गया, उसका नाम 'लीग ऑफ नशन्स' था। वस्तुत: वह लीग ऑफ स्टेट्स, या लीग ऑफ गव्हर्नमेंट्स थी। मूलभूत धारणा ही गलत होने के कारण केवल दो दशकों के अन्दर वह अस्तित्वविहीन बन गया। द्वितीय विश्‍व युध्द के पश्‍चात् 'युनाइटेड नेशन्स' बनाया गया। वह भी युनाइटेड स्टेट्स ही है। इस युनाइटेड नेशन्स यानी राष्ट्रसंघ का एक प्रभावशाली सदस्य यूनियन ऑफ सोशलिस्ट सोवियत रिपब्लिक्स (यु.एस.एस.आर) है। वह उस समय भी एक राष्ट्र नहीं था। एक राज्य था। सेना की भौतिक शक्ति के कारण वह एक था। आज वह शक्ति क्षीण हो गई तो, उसके घटक अलग हो गये हैं। यही स्थिति युगोस्लाव्हाकिया की भी हो गयी। वह भी एक राष्ट्र नहीं था। एक राज्य था। तात्पर्य यह है कि युनाइटेड नेशन्स यह राष्ट्रसंघ नहीं, राज्यसंघ है।

'राज्य' की निर्मिति के सम्बन्ध में महाभारत के शान्तिपर्व में सार्थक चर्चा आयी है। महाराज युधिष्ठिर, शरशय्या पर पड़े भीष्म पितामह से पूछते हैं कि ''पितामह, यह तो बताइये कि राजा, राज्य कैसे निर्माण हुये।'' भीष्म पितामह का उत्तर प्रसिध्द है। उन्होंने कहा कि एक समय ऐसा था कि जब कोई राजा नहीं था, राज्य नहीं था, दण्ड नहीं था, दण्ड देने की कोई रचना भी नहीं थी। लोग 'धर्म' से चलते थे और परस्पर की रक्षा कर लेते थे।

महाभारत के शब्द हैं :-

''न वै राज्यं न राजाऽसीत्
न दण्डो न च दाण्डिक:।
धर्मेणैव प्रजा: सर्वा।
रक्षन्ति स्म परस्परम्॥''
स्वाभाविकतया युधिष्ठिर का पुन: प्रश्न आया कि, यह स्थिति क्यों बदली। भीष्माचार्य ने उत्तर दिया, ''धर्म क्षीण हो गया। बलवान् लोग दुर्बलों को पीड़ा देने लगे'' महाभारत का शब्द है- ''मास्यन्याय'' संचारित हुआ। याने बड़ी मछली छोटी मछली को निगलने लगी। तब लोग ही ब्रह्माजी के पास गये और हमें राजा दो, ऐसी याचना की। तब मनु पहले राजा बने। राजा के साथ राज्य आया, उसके नियम आये, नियमों के भंग करनेवालों को दण्डित करने की व्यवस्था आयी। नियमों के पीछे राज्यशक्ति यानी दण्डशक्ति का बल खड़ा हुआ। अत: नियमों को प्रतिष्ठा प्राप्त हुई।

आज का राज्यशास्त्र भी इसी स्थिति को मानता है। राज्य यह एक राजनीतिक अवधारणा है, जो कानून के बलपर खड़ी रहती है, उसके बलपर चलती है और कानून को सार्थक रखने के लिए उसके पीछे राज्य की दण्डशक्ति (Sanction) खड़ी रहती है। राज्य के आधारभूत हर कानून के पीछे, उसको भंग करनेवालों को दबानेवाली (coercive) एक शक्ति खड़ी होती है। अर्नेस्ट बार्कर नाम के राज्यशास्त्र के ज्ञाता कहते हैं ''राज्य कानून के द्वारा और कानून में अवस्थित रहता है। हम यह भी कह सकते हैं कि राज्य यानी कानून ही होता हैं।''

"The state is a legal association: a juridically organized nation or a nation organized for actoin under legal rules. It exists for law: it exists in and through law: we may even say that it exists as law. If by law we mean, not only a sum of legal rules but also and in addition, an operative system of effective rules which are actually valid and regularly enforced. The essence of the State is a living body of effective rules: and in that sense the State is law.” (Ernest Barker - Priciples of Social and Political Theory - Page 89)

तात्पर्य यह है कि राज्य की आधारभूत षक्ति कानून का डर है। किन्तु राष्ट्र की आधारभूत शक्ति लोगों की भावना है। राष्ट्र लोगों की मानसिकता की निर्मिति होती है। हम यह भी कह सकते हैं कि राष्ट्र यानी लोग होते हैं। People are the Nation. अंग्रेजी में कई बार 'नेशन' के लिये 'पीपुल' शब्द का प्रयोग किया जाता है।

किन लोगों का राष्ट्र बनता है। मोटी-मोटी तीन षर्ते हैं। पहली शर्त है, जिस देश में लोग रहते हैं, उस भूमि के प्रति उन लोगों की भावना। दूसरी शर्त है, इतिहास में घटित घटनाओं के सम्बन्धा में समान भावनाएँ। फिर वे भावनाएँ आनन्द की हो या दु:ख की, हर्ष की हो या अमर्ष की। और तीसरी, और सबसे अधिक महत्व की शर्त है, समान संस्कृति की। श्री गुरुजी ने अपने अनेक भाषणों में इन्हीं तीन षर्तो का, भिन्न-भिन्न सन्दर्भ में विवेचन करके यह निस्संदिग्धा रीति से प्रतिपादित किया कि यह हिन्दू राष्ट्र है। यह भारतभूमि इस राष्ट्र का शरीर है। श्री गुरुजी के शब्द हैं ''यह भारत एक अखण्ड विराट् राष्ट्रपुरुष का शरीर है। उसके हम छोटे-छोटे अवयव हैं, अवयवों के समान हम परस्पर प्रेमभाव धारण कर राष्ट्र-शरीर एकसन्ध रखेंगे।''

संकलनकर्ता - मा.गो.वैद्य

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