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Monday 2 February, 2009

यूपीए की असफलताएं (भाग-3) / किसानों की दुर्दशा

यूपीए की असफलताएं (भाग-1)
यूपीए की असफलताएं (भाग-2)/बेलगाम महंगाई

केन्द्र में यूपीए सरकार आने के बाद आम आदमी को अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ा है। परन्तु यदि किसी एक वर्ग पर मानो विपदा का बादल फट पड़ा हो तो वह है कृषक वर्ग। किसानों को उचित मूल्य पर बिजली, पानी, खाद तो नहीं मिल पा रही है और साथ ही साथ वह कर्ज के दुष्चक्र में इस कदर उलझते जा रहे हैं कि एक सीमा के बाद वे आत्महत्या करने पर विवश हो जाते हैं। किसानों की आत्महत्या जितनी भारी संख्या में पिछले कुछ वर्षों में हुई है वह भारत के इतिहास में ऐसा शर्मनाक अध्‍याय पहले कभी नहीं देखा गया।

अन्नदाता की यह दुर्दशा और वह भी जनता के द्वारा चुनी हुई सरकार के द्वारा हो, एक दुखद विडंबना कही जा सकती है। यूपीए सरकार आज भी इस विडंबना की प्रतीक है। आम आदमी के साथ का दावा करने वालों की पोल खुल चुकी है। अब मुद्दा किसानों की उपेक्षा और तिरस्कार से आगे बढ़कर किसानों के शोषण और अत्याचार तक पहुंच चुका है। विदर्भ और पश्चिम बंगाल इसके ज्वलंत उदाहरण हैं।

एक तरफ भारत में औद्योगिक उन्नति के नये आयाम दिख रहे हैं। कई भारतीय उद्योगपति प्रतिष्ठित विदेशी कंपनियों का अधिग्रहण कर रहे हैं, परन्तु दूसरी तरफ जितनी भारी संख्या में किसान आत्महत्या को विवश हो रहे हैं, यह राष्ट्रीय शर्म का विषय है और इसके लिए यूपीए सरकार की अक्षमता और उपेक्षा भी उतनी ही निन्दनीय है।

एक तरफ देश में करोड़पतियों की संख्या बढ़ रही है, बाजार महंगे लग्ज़री उत्पादों से चकाचौंध हो रहे हैं, तो वहीं दूसरी तरफ पिछले दिनों देश के एक प्रतिष्ठित समाचार पत्र में भारत और चीन की आर्थिक तुलना करते हुए संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों का हवाला देते हुए यह बताया गया कि भारत की 80 प्रतिशत जनसंख्या की औसत प्रतिदिन की आय 2 अमेरिकी डालर से भी कम यानी लगभग 80 रूपए प्रतिदिन से भी कम है। विकास के दो पहलुओं में ऐसा घोर असंतुलन यूपीए सरकार की अदूरदर्शिता, अक्षमता और असंवेदनशीलता का प्रमाण है।

किसानों पर सिर्फ कर्ज की मार ही नहीं पड़ी है बल्कि देश के अलग-अलग इलाकों में अलग-अलग प्रकार की भीषण समस्यायें किसानों को झेलनी पड़ रही है। पश्चिम बंगाल के सिंगूर और नंदीग्राम में जमीन अधिग्रहण के विवाद पर जिस प्रकार वहां के किसानों का दमन किया गया वह नितांत शर्मनाक और दुर्दांत है। इससे भी कहीं आगे जाकर सीपीएम के कार्यकर्ताओं द्वारा गैरकानूनी तरीके से बल प्रयोग और नंदीग्राम के निवासियों के मधय आतंक पैदा करके किसानों से जमीन खाली करवाने का प्रयास किया गया। यह स्वयं को सर्वहारा के मसीहा कहने वालों के वास्तविक चरित्र को उजागर करने वाला था। सिंगूर और नंदीग्राम के किसानों पर भी गत वर्ष सबसे पहले प्रतिक्रिया भाजपा ने व्यक्त की।

आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र में पिछले कुछ वर्षों में किसानों ने हजारों की संख्या में आत्महत्या की। महाराष्ट्र का विदर्भ क्षेत्र तो कई वर्षों से किसानों की कब्रगाह बनता जा रहा है। किसानों की आत्महत्या के सर्वाधिक मामले इस क्षेत्र में हो रहे हैं। प्रदेश और केन्द्र की सरकारें इसका कोई भी समाधान नहीं निकाल पा रही हैं। प्रधानमंत्री का विदर्भ को पैकेज एक भ्रम से अधिक और कुछ सिध्द नहीं हुआ।

अन्नदाता की यह दुर्दशा और वह भी जनता के द्वारा चुनी हुई सरकार के द्वारा हो, एक दुखद विडंबना कही जा सकती है। यूपीए सरकार आज भी इस विडंबना की प्रतीक है। आम आदमी के साथ का दावा करने वालों की पोल खुल चुकी है। अब मुद्दा किसानों की उपेक्षा और तिरस्कार से आगे बढ़कर किसानों के शोषण और अत्याचार तक पहुंच चुका है। विदर्भ और पश्चिम बंगाल इसके ज्वलंत उदाहरण हैं।

क्या कांग्रेस यह सोचती है कि महान और विकसित भारत किसानों की लगातार बढ़ती लाशों के ढेर के बावजूद बन पायेगा। यह असम्भव है। यह भविष्य के लिए और भी गंभीर संकेत है। जिस प्रकार बीसवीं सदी में स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान कांग्रेस ने अपनी गलत नीति के कारण देश के साम्प्रदायिक बंटवारे को स्वीकारा और उसके बाद और सतत् साम्प्रदायिक संघर्ष की नींव रख दी थी उसी प्रकार यदि कुछ और वर्ष कांग्रेस का शासन रहा तो इस देश में आर्थिक विषमता के ऐसे विष बीज पनप जायेंगे कि वे आने वाले समय में अराजक स्थितियां निर्माण कर सकते हैं।

किसानों का उद्धार कोई राजैनतिक मुद्दा नहीं है। यह केवल एक सामाजिक आवश्यकता ही नहीं बल्कि एक राष्ट्रीय आवश्यकता भी है। कृषि और मानव श्रम को हाशिये पर रख कर किया जाने वाला विकास कितना व्यावहारिक है यह विचारणीय है।

यूपीए सरकार के पौने पांच वर्ष के कार्यकाल में गांव, गरीब और किसान की स्थिति बद से बदतर हो गई है। गांवों की दुर्दशा इसलिए और भी अधिक चिंताजनक है क्योंकि इस देश का अन्नदाता किसान ही नहीं बल्कि इस देश का रक्षक जवान भी उसी गांव और किसान के परिवारों से आता है। यदि किसान किसी प्रकार विवश होकर खेती से अलग होता रहा तो इस समस्या का एक और आयाम भी हमारे सामने आ सकता है। किसान की दुर्दशा के दूरगामी प्रभाव सिर्फ खाद्यान्न संकट और सामाजिक संतुलन ही नहीं बल्कि एक समय के बाद सेना के लिए प्रतिबद्ध मानव संसाधन की उपलब्धता का संकट भी पैदा कर सकते हैं। जय जवान और जय किसान का नारा सिर्फ तुकबंदी नहीं था बल्कि जवान और किसान के एक स्वाभाविक अंत:संबंध का प्रतीक था।

गांव- गरीब-किसान और नवयुवक तथा सुरक्षा बलों का जवान, इनकी भावनाओं के समझे बगैर अथवा इनकी उपेक्षा करके कोई राष्ट्र प्रगति के पायदान लगातार तय नहीं कर सकता। केन्द्र की यूपीए सरकार ने इन पौन पांच वर्षों में इनकी निरंतर उपेक्षा की है।
किसान भारत की अर्थव्यवस्था का सबसे बड़ा कार्यकारी समूह है, जनसंख्या की दृष्टि से सबसे बड़ा उत्पादक है और सबसे बड़ा उपभोक्ता (ग्राहक) है। बिना किसानों की क्रय शक्ति को बढ़ाये भारत की अर्थव्यवस्था उन्नत नहीं हो सकती।
यूपीए की असफलताएं (भाग-1)
यूपीए की असफलताएं (भाग-2)/बेलगाम महंगाई

1 comment:

dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह } said...

यही सब रोना तो एन .डी.ऐ सरकार मे भी था