हितचिन्‍तक- लोकतंत्र एवं राष्‍ट्रवाद की रक्षा में। आपका हार्दिक अभिनन्‍दन है। राष्ट्रभक्ति का ज्वार न रुकता - आए जिस-जिस में हिम्मत हो

Thursday 8 January, 2009

अर्थनीति और हम : दीनदयाल उपाध्याय

वर्तमान आर्थिक हालात ने देशवासियों के माथे पर चिंता की लकीरें खींच दी हैं। आजादी के बाद भारत ने स्वदेशी अर्थ-चिंतन को दरकिनार कर मिश्रित अर्थव्यवस्था को अपनाया। साम्यवाद और समाजवाद के कॉकटेल से उपजी इस अर्थव्यवस्था का परिणाम आज हमें स्पष्ट दिखाई दे रहा है। अमीरी और गरीबी के बीच फासला निरंतर गहराता जा रहा है। वहीं भूमंडलीकरण के बहाने तमाम बहुराष्ट्रीय कंपनियां गांवों तक पहुंच रही हैं और परंपरागत कृषि व्यवस्था पर चोट कर रही हैं। एकात्ममानव दर्शन के प्रणेता दीनदयालजी कहते थे, 'आर्थिक योजनाओं तथा आर्थिक प्रगति का माप समाज के ऊपर की सीढ़ी पर पहुंचे व्यक्ति से नहीं, बल्कि सबसे नीचे के स्तर पर विद्यमान व्यक्ति से होगा।'

भारत आखिर कैसे अठारहवीं शताब्दी तक विश्व का सर्वाधिक समृध्द देश था और आज क्यों आम जनता की आर्थिक स्थिति के मामले में संयुक्त राष्ट्र संघ के 54 सर्वाधिक गरीब देशों में गिना जाता है। हम यहां भारतीय अर्थ-चिंतन के बारे में देश के प्रख्यात चिंतकों के लेख प्रस्तुत करेंगे। प्रस्तुत है पं. दीनदयाल उपाध्याय के विचार-
वर्तमान युग में आर्थिक समस्‍या अत्यंत विषम हो उठी है। इस समस्या को हल करने के विविध प्रकार पश्चिम के विद्वानों ने रखे हैं, किन्तु इन सभी का दृष्टिकोण एकांगी हो रहा है।
जिस प्रकार राजनीतिक लोकतंत्र में ग्राम-पंचायत आदि इकाइयों से लोकतंत्र उठकर ऊपर की ओर चलता है, उसी प्रकार आर्थिक लोकतंत्र में ग्राम तथा कुटीर उद्योगों और इसी प्रकार विकेंद्रीकरण के अनुसार किये जाने वाले कृषि उत्पादन केन्द्रों से उठकर लोकतंत्र ऊपर जाना चाहिए। साम्यवाद केंद्रित अर्थनीति का ही एक अंग है, अत: उसकी जड़ें आसमान में हैं, जबकि इस अर्थव्यवस्था की जड़ें धरती के भीतर गहरी घुसी हुई हैं।
उत्पादन पर अधिक बल देने के कारण अमेरिका आदि देशों में पूंजीवाद का प्रसार हुआ। नवाविष्कृत-यंत्र इस वृध्दिंगत उत्पादन के कारण बने और इन यंत्रों के स्वामी ही उत्पादन के स्वामी भी बन गये। लाभ में जब श्रमिकों को भाग नहीं मिला तब उनमें प्रतिक्रिया उत्पन्न हुई और उन्होंने एक नयी प्रणाली समाजवाद या साम्यवाद का विकास किया, जिसमें पुन: वितरण पर ही अधिक बल दिया गया और इसके लिए राज्य द्वारा व्यक्ति को कुचल कर भी रख दिया गया।

लेकिन उपभोग की ओर पश्चिम के विद्वानों का ध्यान नहीं गया, यद्यपि उपभोग ही उत्पादन और वितरण दोनों की धुरी है। पश्चिम ने अधिकाधिक उपभोग के अपने पुराने सिध्दांत को ही चलने दिया और उसमें संशोधन की जरूरत नहीं समझी। वास्तविकता यह है कि अधिकाधिक उपभोग का सिध्दांत ही मनुष्य के दु:खों का कारण है। उपभोग की लालसा यदि पूरी की जाय तो वह बढ़ती चली जाती है। वर्ग-संघर्ष, जिसके ऊपर समूचा साम्यवाद खड़ा है, ऐसे उपभोग के कारण ही उत्पन्न होता है। भारतीय मतवाद जब वर्ग-संघर्ष का खण्डन करता है, तब उसका तात्पर्य यही होता है कि उसने उपभोग को नियंत्रित कर लिया है तथा अधिकाधिक उपभोग के बजाय न्यूनतम उपभोग को आदर्श बनाया है। मनुष्य की प्रकृत भावनाओं का संस्कार करके उसमें अधिकाधिक उत्पादन, समान वितरण तथा संयमित उपभोग की प्रवृति पैदा करना ही आर्थिक क्षेत्र में संस्कृति का कार्य है। इसमें ही तीनों का संतुलन है।

आर्थिक लोकतंत्र
भारतीय चेतना प्रकृति से प्रजातंत्रीय है और आज का युग भी प्रजातंत्र की ओर बढ़ रहा है। राजनीति के क्षेत्रों में यह प्रजातंत्र का भाव बहुत कुछ स्पष्ट होकर आया है तथा अब आर्थिक क्षेत्र में भी इसी प्रजातंत्र का उदय हो रहा है। राजनीतिक शक्ति का प्रजा में विकेंद्रीकरण करके जिस प्रकार शासन की संस्था का निर्माण किया जाता है, उसी प्रकार आर्थिक शक्ति का भी प्रजा में विकेंद्रीकरण करके अर्थव्यवस्था का निर्माण और संचालन होना चाहिए। राजनीतिक प्रजातंत्र में व्यक्ति की अपनी रचनात्मकता क्षमता को व्यक्त होने का पूरा अवसर मिलता है। ठीक इसी प्रकार आर्थिक प्रजातंत्र में भी व्यक्ति की क्षमता को कुचलकर रख देने का नहीं, अपितु उसको व्यक्त होने का पूरा अवसर प्रत्येक अवस्था में मिलना चाहिए। ऐसी अर्थव्यवस्था किसी भी दशा में स्वीकार्य नहीं, क्योंकि बाद में चलकर इस दमन के परिणाम प्रगट होते हैं और अंतत:, राजनीतिक तथा सामाजिक व्यवस्था पर ही नहीं, आर्थिक व्यवस्था पर भी उसका कुप्रभाव पड़ता है। यह निसर्ग का नियम है, तथा आरंभ से ही उसका ध्यान रखकर चलना बुध्दिमत्ता होगी।

राजनीति में व्यक्ति की रचनात्मक क्षमता को जिस प्रकार तानाशाही नष्ट करती है, उसी प्रकार अर्थनीति में व्यक्ति की रचनात्मक क्षमता को भारी पैमानों पर किया गया औद्योगीकरण नष्ट करता है। ऐसे उद्योगों में व्यक्ति स्वयं भी मशीन का एक पुर्जा बनकर रह जाता है। तानाशाही की भांति ऐसा औद्योगीकरण भी वर्जनीय है। आर्थिक क्षेत्र में व्यक्ति की यह रचनाशक्ति तभी प्रकट हो सकती है, जब विकेंद्रीकरण के आधार पर उद्योगों की व्यवस्था हो। विकेंद्रीकरण से मशीन का परित्याग नहीं समझना चाहिए, इसके लिए मशीनों को छोटा जरूर करना पड़ सकता है। बड़ी मशीनों का परित्याग इस अवस्था में आवश्यक है। कुछ ऐसे उद्योग भी हो सकते हैं, जो बड़ी मशीनों से ही चल सकते हों, तो उन पर व्यक्तिगत स्वामित्व के बजाय राजकीय स्वामित्व होना चाहिए। ऐसे उद्योग सुरक्षा उद्योगों में आते हैं।

विकेंद्रीकरण से वे समस्याएं हल होती हैं, जिनका कारण अतिकेंद्रीकरण है। पूंजीवाद भी अतिकेंद्रीकरण के कारण ही उत्पन्न होता है। जब लोगों को बड़े पैमाने पर उत्पादन करने का अवसर ही नहीं मिलेगा तो पूंजी इकट्ठी ही कैसे हो सकेगी? इसमें गांव तो अधिकाधिक स्वावलंबी होंगे ही, व्यक्ति को प्रेरणा मिलने के कारण वस्तु के गुण तथा उत्पादन दोनों ही बढेंग़े। पुरातनकाल के कुटीर उद्योग जितनी उत्तम श्रेणी की वस्तुएं तैयार करते थे, उतनी आज की मशीन नहीं तैयार कर पाती। कुटीर उद्योगों में हस्तकौशल और शिल्प को जो बहुत बड़ा क्षेत्र मिलता है, वह मशीन-उद्योगों में बिल्कुल नहीं मिल पाता। जिस प्रकार राजनीतिक लोकतंत्र में ग्राम-पंचायत आदि इकाइयों से लोकतंत्र उठकर ऊपर की ओर चलता है, उसी प्रकार आर्थिक लोकतंत्र में ग्राम तथा कुटीर उद्योगों और इसी प्रकार विकेंद्रीकरण के अनुसार किये जाने वाले कृषि उत्पादन केन्द्रों से उठकर लोकतंत्र ऊपर जाना चाहिए। साम्यवाद केंद्रित अर्थनीति का ही एक अंग है, अत: उसकी जड़ें आसमान में हैं, जबकि इस अर्थव्यवस्था की जड़ें धरती के भीतर गहरी घुसी हुई हैं।

आर्थिक क्षेत्र की तीन वस्तुएं हैं- मनुष्य, श्रम और मशीन। इन तीनों का समन्वय ही अर्थ-व्यवस्था में यह समन्वय नहीं, उसमें समन्वयहीनता के परिणामस्वरूप विषमताएं अवश्य होंगी। जो अर्थनीति इन परिणामों से ही अपने दर्शन का सूत्र चलाती हैं, वह तात्कालिक रूप में इन परिणामों को भले ही दूर कर दे, पर वह व्यवस्था का मौलिक शोधन नहीं कर सकती। मौलिक शोधन के लिए तो कारणों से ही चलकर आगे बढ़ना होगा तथा इन परिणामों को नष्ट करने का उपाय करना होगा।

क्रमश:

1 comment:

Anonymous said...

नेहरु और गांधी जैसे लोगो ने भारत की आजादी को विलम्बित कर दिया । नतिजा यह है कि भारत आज भी अमेरिका/ईङलैण्डका अर्द्ध उपनिवेश हीं है । इस गुलामी से मुक्ति सिर्फ दीन दयाल उपाध्याय की विचारधारा से मिल सकती है । लेकिन उनकी विचारधारा पर जो काम चलना चाहिए वह पुरे जोर शोर से नही चल पा रहा है । कट्टरवादी हिन्दुत्व मे उनका दर्शन गुम हो जाता है । सभी से अनुरोध है कि उनकी पुस्तक को एक बार नही कई बार पढे और उस पर सामुहिक चर्चा करे । एक एक शब्द महत्वपुर्ण है ।