हितचिन्‍तक- लोकतंत्र एवं राष्‍ट्रवाद की रक्षा में। आपका हार्दिक अभिनन्‍दन है। राष्ट्रभक्ति का ज्वार न रुकता - आए जिस-जिस में हिम्मत हो

Friday 28 November, 2008

पाटिल से डरते हैं आतंकवादी!


फोटो समाचार- द ट्रिब्‍युन से साभार
भारत के नालायक गृह मंत्री शिवराज पाटिल ने देशवासियों का जीना हराम कर दिया हैं। उनके हाथ निर्दोष लोगों के खून से लाल हो गए हैं। स्वाभिमानी भारत में उन्होंने भय और दहशत का माहौल कायम कर दिया है।

अपने उलुल-जुलूल और रटी-रटायी बयानों के चलते मजाक का पात्र बन चुके शिवराज पाटिल इस बार फिर लोगों के आक्रोश के शिकार बन गए हैं। पाटिल मुंबई में हुए आतंकी हमलों का जायजा लेने कल सुबह मुंबई पहुंचे। लौटने के बाद उन्होंने पत्रकारों से कहा, कामा अस्पताल और रेलवे स्टेशन पर हमला करने वाले आतंकवादी मेरे वहां पहुंचने से पहले ही भाग चुके थे।

Thursday 27 November, 2008

विडियो- ओ पालन हारे, निर्गुण और न्यारे



ओ पालन हारे, निर्गुण और न्यारे
तुम्‍हरे बिन हमरा कौनो नहीं....

हमरी उलझन सुलझाओ भगवन
तुम्‍हरे बिन हमरा कौनो नहीं....

तुम्ही हमका हो संभाले
तुम्ही हमरी रखवाले
तुम्‍हरे बिन हमरा कौनो नहीं...

चन्दा में तुम ही तो भरे हो चांदनी
सूरज में उजाला तुम ही से
यह गगन हैं मगन, तुम ही तो दिए इसे तारे
भगवन, यह जीवन तुम ही न सवारोगे
तो क्या कोई सवारे

ओ पालनहारे ......

जो सुनो तो कहे प्रभुजी हमरी है विनती
दुखी जन को धीरज दो
हारे नही वो कभी दुखसे
तुम निर्बल को रक्षा दो
रह पाए निर्बल सुख से
भक्ति दो शक्ति दो

जग के जो स्वामी हो, इतनी तो अरज सुनो
हैं पथ में अंधियारे
देदो वरदान में उजियारे

ओ पालन हरे ......

Wednesday 26 November, 2008

मार्क्सवाद तथा मुस्लिम

लेखक- डा. सतीश चन्द्र मित्तल

मार्क्सवाद तथा इस्लाम कभी एक-दूसरे के सहचर नहीं हो सकते।
सोवियत रूस की भांति मार्क्सवादी चीन ने भी नरसंहार में कोई कमी न रखी। एक करोड़ से भी अधिक मुसलमानों पर कहर ढहाना प्रारम्भ किया। चीन में यह ज्वलंत प्रश्न सदैव बना रहा है कि आखिर चीन में मुसलमान कहां गायब हो गए? एक प्रसिध्द लेखक असा बाफीगीह ने जकार्ता से प्रकाशित 'ग्रीन फ्लैग' (अप्रैल, 1956) में लिखा, 'चीन में रहने वाले लाखों मुसलमानों का क्या हुआ? क्या ये फारमोसा भाग गए या अब कम्युनिस्ट बन गए? वह केवल दो संभावनाएं मानता है-या तो उन्हें मार दिया गया या वे भूमिगत हो गए। रफीक खां ने अपनी प्रसिध्द पुस्तक 'इस्लाम इन चायना' में इसका विस्तृत वर्णन किया है। मुसलमानों के साथ अमानुषिक अत्याचार किए गए। सम्पूर्ण उत्तर पश्चिम प्रांतों में सैनिकों को भेजकर उनका नरसंहार हुआ। उन्हें श्रमिक शिविरों में भेजा गया। उनके वक्फ बोर्ड खत्म कर दिए। अरबी लिपि बन्द कर दी गई। मुस्लिम लड़कियों की शादी हान-चीनियों से, जिनसे मुसलमान पहले ही घृणा करते थे, की गई। कई हजार मुस्लिम कश्मीर भाग गए। चीन में 16,600 मस्जिदों में से अधिकतर नष्ट कर दी गईं।
साम्यवादी देश मार्क्स को मानते हैं, न कि मस्जिदों या मीनारों को। इस्लाम सोवियत संघ तथा चीन में लम्बे समय तक झगड़े की जड़ रहा है।

कुरान, हदीस, शरीयत आदि जिहाद की भावना को ही पुष्ट करते हैं। वे सामान्य मुस्लिम भाईचारे में विश्वास करते हैं, न कि मानवीय भ्रातृत्व में।

इसके विपरीत मार्क्स तथा एंजिल ने अपने विविध ग्रंथों तथा लेखों में धर्म को 'एक भद्दा प्रत्यक्षीकरण' 'अफीम की पुड़िया' तथा 'मायावी सुख' बताया है। वे धार्मिक चमत्कारों से युक्त सामग्री तथा धार्मिक पूजा के आवश्यक तत्वों को नष्ट करना अनिवार्य मानते हैं। वे ईसाइयत के कार्य को धोखाधड़ी से जोड़ते हैं। लेनिन ने धर्म को 'आध्यात्मिक शोषण' का हथियार माना है। उसने उद्धोष किया-धर्म का अन्त करो, नास्तिकता अमर रहे।

धर्म के सन्दर्भ में कार्ल मार्क्स तथा लेनिन के विचारों को साम्यवादी रूस तथा चीन ने व्यावहारिक स्वरूप देने का प्रयत्न किया।

स्टालिन के नेतृत्व में पड़ोसी मुस्लिम राज्यों को हड़प लिया गया तथा सोवियत साम्राज्यवाद का अंग बना लिया। उन्हें 'जनता का दुश्मन', उनके कार्यों को 'सोवियत विरोधी' कहा गया। उद्धोष किया 'मीनारें या मस्जिदें नहीं मार्क्स चाहिए।' पोकरोवस्काई ने इस्लाम को 'अरब सौदागरों' द्वारा पूंजीवाद की कृति बताया। रोशीकोव ने इसे सामान्तवाद की सफलता बताया। कीलाविच ने इसे एक विज्ञान विरोधी प्रतिक्रियावादी विश्व का विचार बताया। इन विचारकों ने मक्का की यात्रा की और अरब सौदागरों तथा सामन्तों की आय का साधन बताया।

इसका परिणाम यह हुआ कि मुस्लिम समुदाय पर मुसीबतों का पहाड़ टूट गया। हजारों मस्जिदें ढहा दी गईं। एक प्रसिध्द मुस्लिम मुफ्ती जियाउद्दीन-इब्न-इसान के अनुसार मध्य एशिया क्षेत्र में जहां पहले 25,000 मस्जिदें थीं, केवल एक हजार रह गईं। अनेक मुस्लिम मजहबी स्थलों में ताले डाल दिए गए। उन्हें शीघ्र ही स्नानघरों, जेलखानों, होटलों तथा नास्तिकों के संग्रहालयों में परिवर्तित कर दिया गया। अनेक मजहबी त्योहार बन्द कर दिए गए। इदुलजुहा, रमजान, मुहर्रम तथा खतने की प्रथा बन्द कर दी गई। मुसलमानों को उनके कानूनों, मदरसों तथा शरियत की अदालतों से वंचित कर दिया गया। उन्हें परम्परागत लोकगीत के स्थान पर रूसी तराने गाने को मजबूर किया। परम्परागत चायघर (चयानास) बन्द कर रूसी शराब 'बोदका' पीने तथा बेचने को मजबूर किया। सचाई यह है कि लाखों मुसलमानों ने रातोंरात परिवर्तित हो 'प्रगतिशील कम्युनिस्ट' कहकर जान बचाई।

सोवियत रूस की भांति मार्क्सवादी चीन ने भी नरसंहार में कोई कमी न रखी। एक करोड़ से भी अधिक मुसलमानों पर कहर ढहाना प्रारम्भ किया। चीन में यह ज्वलंत प्रश्न सदैव बना रहा है कि आखिर चीन में मुसलमान कहां गायब हो गए? एक प्रसिध्द लेखक असा बाफीगीह ने जकार्ता से प्रकाशित 'ग्रीन फ्लैग' (अप्रैल, 1956) में लिखा, 'चीन में रहने वाले लाखों मुसलमानों का क्या हुआ? क्या ये फारमोसा भाग गए या अब कम्युनिस्ट बन गए? वह केवल दो संभावनाएं मानता है-या तो उन्हें मार दिया गया या वे भूमिगत हो गए। रफीक खां ने अपनी प्रसिध्द पुस्तक 'इस्लाम इन चायना' में इसका विस्तृत वर्णन किया है। मुसलमानों के साथ अमानुषिक अत्याचार किए गए। सम्पूर्ण उत्तर पश्चिम प्रांतों में सैनिकों को भेजकर उनका नरसंहार हुआ। उन्हें श्रमिक शिविरों में भेजा गया। उनके वक्फ बोर्ड खत्म कर दिए। अरबी लिपि बन्द कर दी गई। मुस्लिम लड़कियों की शादी हान-चीनियों से, जिनसे मुसलमान पहले ही घृणा करते थे, की गई। कई हजार मुस्लिम कश्मीर भाग गए। चीन में 16,600 मस्जिदों में से अधिकतर नष्ट कर दी गईं। मार्क्स के लिए भारत में ब्रिटिश शासन होने के कारण रूस तथा चीन की भांति कोई आधार न था। मार्क्सवाद भारत में एक विदेशी जंगली पौधे के रूप में रोपा गया। यहां इसका आधार कुछ मुजाहिद तथा खलीफा आन्दोलन से प्रभावित कुछ मुसलमान बने। ताशकन्द से भारतीय साम्यवादी पार्टी का जन्म हुआ। मुहम्मद शफीक इसके पहले सचिव बने।

भारत में साम्यवादी नेतृत्व प्रारम्भ से ही हिन्दू चिंतन के विरोध से अलग न रह सका। उनकी धार्मिक नीति नास्तिकता की ओर बढ़ने की बजाय सामान्यत: मुस्लिम तुष्टीकरण तथा हिन्दू-मुस्लिम विरोध पैदा करने की रही। इसीलिए वे व्यावहारिक राजनीति में कभी कांग्रेस का विरोध, कभी कांग्रेस में योजनापूर्वक घुसपैठ की कोशिशें करते रहे। अनेक बार उनका मुस्लिम तुष्टीकरण कांग्रेस की सीमाएं भी पार कर गया। सामान्यत: राष्ट्रीय आन्दोलनों में उनकी भूमिका नकरात्मक रही।

यह सर्वविदित है कि पाकिस्तान के निर्माण में भारतीय मार्क्सवादियों की महत्वपूर्ण भूमिका रही। मुस्लिम लीग द्वारा पाकिस्तान की मांग की घोषणा के बाद सितम्बर, 1942 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने एक प्रस्ताव पारित किया कि भारत विविधताओं से भरा एक देश है। यहां प्रत्येक को आत्मनिर्णय का अधिकार है। उन्होंने भारत को एक राष्ट्र नहीं माना बल्कि पाकिस्तान का खुला समर्थन किया। कश्मीर के बारे में उनकी नीति मुस्लिम समर्थक रही। भारत पर पाकिस्तानी या चीनी आक्रमण के बारे में उनकी प्रतिक्रिया जग जाहिर है।

भारतीय मार्क्सवादियों का मुस्लिम प्रेम बड़ी बेशर्मी से स्पष्ट दिखाई देता है। केरल में मुस्लिम लीग से समझौता, मल्लापुरम जिले का निर्माण उसके उदाहरण हैं। नम्बूदिरीपाद का कथन है कि अल्पसंख्यक साम्प्रदायिकता बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता से कम खतरनाक है। इसीलिए बंगाल की पाठय पुस्तकों में रटाया जा रहा है कि हिन्दू सबसे घटिया है। मुसलमान प्रगतिशील तथा रूस की 1917 की क्रांति सर्वश्रेष्ठ है। निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है जहां मार्क्सवादी चिंतन रूस तथा चीन में मुसलमानों का कटु विरोधी रहा, वहां भारत में यह कभी भी हिन्दू हितैषी नहीं रहा। हिन्दू-मुस्लिम विभेद कर इसने भारत में अलगाव को बढ़ावा दिया।

Monday 24 November, 2008

वामपंथी इतिहास चिन्तन के ये 'मार्गदर्शक'

लेखक- डा. सतीश चन्द्र मित्तल

वामपंथी लेखक तथा इतिहासकार सदैव इतिहास को एक राजनीतिक हथियार के रूप में प्रयोग में लाते रहे हैं। वे तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर अथवा गायब कर, अपने भविष्य की सोच के अनुकूल इतिहास गढ़ते तथा तराशते रहे हैं।
भारत में साम्यवाद एकमात्र राजनीतिक दल है जो एक आयातित विचारधारा पर आधारित है। इसका जन्म 1920 में ताशकन्द में सोवियत अन्तरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट दल के रूप में हुआ। अत: इसका नाम भी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी न होकर 'कम्युनिस्ट पार्टी आफ इंडिया' है। अपनी सदस्य संख्या बढ़ाने के लिए पार्टी ने समय-समय पर विभिन्न हथकण्डे अपनाये। कभी महात्मा गांधी का कटु विरोध किया तो कभी कांग्रेस से गठजोड़ किया। द्वितीय महायुध्द में उसकी भूमिका नकारात्मक रही। उन्होंने 1942के आन्दोलन में अंग्रेजों का साथ दिया। पाकिस्तान के लिए जिन्ना की वकालत की तथा भारत को 16-17 स्वायत्त इकाइयों में बांटने का प्रस्ताव भी रखा। आजादी के पश्चात् भी भारतीय कम्युनिस्टों ने 1962 ई. में चीन के भारत पर आक्रमण पर पहले तो अपने मुंह पर ताला लगाए रखा, पर चीन के आगे बढ़ने पर कलकत्ता में उसे लाल सलाम देने को आतुर दिखे।
मार्क्‍सवादियों ने पूर्व सोवियत संघ (रूस) तथा चीन में इतिहास का सरकारीकरण किया। पूर्व सोवियत संघ में लेनिन, स्टालिन तथा ब्रेझनेव ने इतिहास को मनमाने ढंग से लिखवाया तथा प्रमाणरहित परिस्थितयों का विश्लेषण किया। चीन भी इस दिशा में पीछे नहीं रहा।

स्टालिन-इतिहास पर निरंकुश अधिकार
सोवियत संघ में स्टालिन (1924-1953 ई.) अपने क्रूर तथा बर्बर कारनामों के लिए विश्व में जाना जाता है। वह विश्व में 20वीं शताब्दी के क्रूर हत्यारों में से एक माना गया है। इतिहास को मनमाने ढंग से बदलने तथा अपने नियन्त्रण में रखने में वह दक्ष था। उसे सोवियत संघ में इतिहास का जनक कहा जाता था। इसके निर्देशन में इतिहास की एक किताब छपी, जिसका नाम था सोवियत संघ की 'कम्युनिस्ट पार्टी का इतिहास-एक संक्षिप्त पाठयक्रम'। इसमें प्रतिवर्ष स्टालिन की आज्ञा से परिवर्तन तथा संशोधन होता था। 1928 ई. में एक कांफ्रेंस में स्टालिन को इतिहास पर पूर्ण निरंकुशता के अधिकार दे दिए गए थे। 1934 ई. में कम्युनिस्ट पार्टी की केन्द्रीय समिति ने एक आदेश द्वारा इतिहास को पार्टी की विचारधारा के अनुकूल बनाने तथा सभीपाठयपुस्तकों, स्कूलों, विश्वविद्यालयों तथा संस्थाओं को, इसके अनुसार कार्य करने का फरमान दिया। (देखें, डेविड रैमनिक, लेनिन' स टूम्ब, दा लास्ट डैज आफ दा सोवियत एम्पायर, न्यूयार्क, 1993, पृ. 17)

स्टालिन ने स्वयं 5 करोड़ पुस्तकों की प्रतियों के लेखन तथा प्रकाशन को जिम्मेदारी ली। इतिहासकार जेनरिख जोफी ने इस पर तीव्र प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए इसे प्रत्येक स्कूल के लड़के एवं लड़कियों के दिमाग को झूठी घटनाओं से भरने का षडयंत्र कहा। डेविड रैमानिक, जो स्वयं रूस के विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रहे थे, ने इस संक्षिप्त पाठयक्रम के बारे में लिखा, 'यह एक पूर्व निश्चित इतिहास की पाठय पुस्तक थी। जिसमें सभी प्रमुख घटनाओं, आवश्यक रूप से वर्तमान शासन के सच तथा शक्ति को, कठोरता से एक शानदार परिणाम बताती थी। (देखें, अध्याय-द रिटर्न आफ हिस्ट्री, पृ. 16-51)। ऐसी पाठय पुस्तक में इतिहास आन्तरिक संघर्षों, अनिश्चित व प्रतिइच्छा, निरर्थकता तथा दुखान्त से मुक्त रहा था, किसी प्रकार के प्रश्न या लेखन को अस्वीकार करना अपराध माना जाता था। अत: लिखित पाठयक्रम को नकारना, अपनी मौत को बुलाना था।

ल्योनिद ब्रेझनेव: स्टालिन के अनुगामी
इतिहास चिन्तन की यह दिशा, स्टालिन के पश्चात् भी सोवियत अधिकनायकों का मार्गदर्शन करती रही। उदाहरण के लिए, ल्योनिद ब्रेझनेव (अक्तूबर 1964-नवम्बर 1982 ई.) ने विश्व तथा सोवियत इतिहास के विश्लेषण में स्टालिन का मार्ग अपनाया। उन्होंने सरगेई ट्रेपोजेवीकोव को विज्ञान तथा शिक्षा व्यवस्थाओं की केन्द्रीय समिति का अध्यक्ष बनाया, जिन्होंने किसी अन्य चिंतन या विरोधी मत को लिखने की स्वतंत्रता नहीं दी। सभी संस्थानों पर कठोरता से नियंत्रण किया। लेनिन द्वारा प्रथम संविधान सभा की समाप्ति से लेकर 1968 ई. तक चेकोस्लोवाकिया पर रूसी आक्रमण की सभी घटनाएं इतिहास से गायब कर दी गईं अथवा इन्हें विरोधी मत से अज्ञात रखा। यहां तक कि 1979 ई. को रूस के अफगानिस्तान पर आक्रमण को अन्तरराष्ट्रीय कर्तव्य या समाजवादी भाइयों का निमंत्रण बताया।

चीन में माओ त्सेतुंग तथा उनके उत्तराधिकारियों की इतिहास दृष्टि
सोवियत संघ की भांति चीन के माओ त्सेतुंग (1949-1976 ई.) ने भी चीनी इतिहास, संस्कृति तथा जीवन प्रणाली की मनमानी व्याख्या की। लगभग 28 वर्षों तक वह चीन के निरंकुश अधिनायक रहे। उन्होंने स्वयं अपने पहले तीन वर्षों के शासन काल के बारे में लिखा, 'पिछले तीन वर्षों में हमने 20 लाख से अधिक डाकुओं को खत्म कर दिया और क्रांतिकारियों और गुप्तचरों को बन्दीगृह के कठोर नियंत्रण में रख दिया।' (राहुल सांस्कृत्यायन, माओत्सेतुंग, इलाहाबाद, 1983, पृ. 266)। नौकरशाही का इतना दमन किया कि सभी कहने लगे कि माओ कभी गलती नहीं करते। माओ के बाद, पुन: पार्टी के उद्भव से लेकर 1976 ई. तक के इतिहास पर विचार किया गया और नवीन इतिहास रचा गया। माओ के विचारों को दफना दिया गया।

यहां एक उदाहरण देना उपयुक्त होगा। रौस टेररिल नामक एक आस्ट्रेलियाई पत्रकार ने चीन के इतिहास तथा जीवन को समझने का प्रयास किया। उन्होंने 1970 के दशक में चीन की 25 से अधिक यात्राएं कीं, माओ की पत्नी पर एक पुस्तक 'द व्हाइट बैनेड डैमन' लिखी। 1989 ई. में इसे उन्होंने चीन से छपवाया जिसमें पुस्तक का 20 प्रतिशत मुख्य भाग गायब था। अत: चीन में भ्रष्टाचार न केवल आर्थिक क्षेत्र में, बल्कि लेखन तथा प्रकाशन के क्षेत्र में भी व्याप्त था। (देखें, डेविड आइकमैन, पैसीफिक रोम, 1986, पृ.237)

भारत में वामपंथ का प्रवेश
भारत में साम्यवाद एकमात्र राजनीतिक दल है जो एक आयातित विचारधारा पर आधारित है। इसका जन्म 1920 में ताशकन्द में सोवियत अन्तरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट दल के रूप में हुआ। अत: इसका नाम भी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी न होकर 'कम्युनिस्ट पार्टी आफ इंडिया' है। अपनी सदस्य संख्या बढ़ाने के लिए पार्टी ने समय-समय पर विभिन्न हथकण्डे अपनाये। कभी महात्मा गांधी का कटु विरोध किया तो कभी कांग्रेस से गठजोड़ किया। द्वितीय महायुध्द में उसकी भूमिका नकारात्मक रही। उन्होंने 1942के आन्दोलन में अंग्रेजों का साथ दिया। पाकिस्तान के लिए जिन्ना की वकालत की तथा भारत को 16-17 स्वायत्त इकाइयों में बांटने का प्रस्ताव भी रखा। आजादी के पश्चात् भी भारतीय कम्युनिस्टों ने 1962 ई. में चीन के भारत पर आक्रमण पर पहले तो अपने मुंह पर ताला लगाए रखा, पर चीन के आगे बढ़ने पर कलकत्ता में उसे लाल सलाम देने को आतुर दिखे।

Friday 21 November, 2008

भारतीय दर्शन के विपरीत है मार्क्‍सवाद : महेश नौटियाल

रूस की क्रांति के बाद पूरी दुनिया में मार्क्‍सवाद की एक नई लहर पैदा हुई। दुनिया के लगभग सभी देश मार्क्‍सवादी विचारों से प्रभावित हुए। ब्रिटिश राज के शोषण से पीड़ित भारत में भी मार्क्‍सवाद को हाथों-हाथ लिया गया। भारत की मार्क्‍सवादी- शासन को ही भारत की सम्पूर्ण स्वतंत्रता बताकर उसे भूनाने की कोशिश की गई, किन्तु मार्क्‍सवाद का स्वतंत्रता से कोई लेना-देना नहीं है।
मार्क्‍सवाद का सामाजिक समानता से भी कोई लेना-देना नहीं है बल्कि सत्ता प्राप्ति ही इसका अंतिम ध्येय है। इसके लिए यह दर्शन रोटी, कपड़े, और मकान की आड़ में सामाजिक समानता की बात करता हुआ व्यक्ति के सामने आता है। इस रूप में आकर यह आर्थिक रूप से जूझते व्यक्ति को तत्काल ही आकर्षित करता है। जिन दिनों रूस और चीन में मार्क्‍सवाद जड़ें जमा रहा था उन दिनों भी सामाजिक समानता कहीं नहीं थी। समाज निरकुंश शासक और शोषित प्रजा के बीच बंटा हुआ था।
मार्क्‍सवाद एक निरकुंश अवधारणा है जिसमें व्यक्ति को रोटी, कपड़ा और मकान के बीच ही उलझा कर रखा जाता है। मार्क्‍सवादी दर्शन ने पृथ्वी के विशाल भू-भाग को अपने दर्शन से प्रभावित किया। मार्क्‍सवाद के सफल होने के कारणों की खोजबीन होनी चाहिए।

मार्क्‍सवाद एक भौतिक अवधारणा है। यह केवल दैहिक-आवश्यकताओं को ही परम लक्ष्य मानकर चलने वाला दर्शन है। मार्क्‍सवाद शरीर को मात्र एक पदार्थ मानता है। शरीर के भीतर आत्म-तत्व की उपस्थिति को वह नकारता है। जब शरीर एक पदार्थ भर है और आत्मा का कोई अस्तित्व नहीं है तो व्यक्ति केवल अपनी भौतिक आवश्यकताओं के लिए जीने वाला एक प्राणी भर रह जाता है। जीवन में रोटी, कपड़ा और मकान ही उसकी परम आवश्यकताएं रह जाती हैं। इन्हीं के लिए जीना, इन्हीं के लिए मरना।

जिस समय मार्क्‍सवाद दुनिया में जड़ें जमा रहा था उस समय दुनिया के लगभग सभी देशों में आर्थिक शोषण जारी था। साम्राज्यवादी ताकतें दूसरे देशों के आर्थिक संसाधनों को बलपूर्वक हथिया रही थीं। कमजोर देशों में गरीबी व भुखमरी का आलम था। लोग दो वक्त की रोटी के लिए मोहताज हो गए थे। साम्राज्यवादी शोषण का शिकार आम आदमी हो रहा था। आम आदमी को तो यह पता ही नहीं था कि वह किस साम्राज्यावादी कुचक्र का शिकार हो गया है, क्यों उससे उसकी रोटी का अधिकार छीन लिया गया है। धर्म के नाम पर जिन देवी-देवताओं को वह पूजता आया था, संकट की इस घड़ी में वह उसके काम नहीं आए। धर्म पर से विश्वास टूटने लगा क्योंकि भूखा पेट, आम आदमी और धर्म एक साथ नहीं चल सकते। ऐसे में यदि कोई विचार या दर्शन लोगों को साहस दे सकता था तो वह मार्क्‍सवादी दर्शन ही था। कोई विचार या दर्शन जो उन्हें अपनी रोटी छीनकर वापस लेने की प्रेरणा दे सकता था तो वह मार्क्‍सवाद ही था। जब शरीर की जरूरतें बड़ी हो जाती हैं तब धर्म, आध्यात्मिकता मात्र शब्द भर रह जाते हैं। व्यक्ति का इन पर से विश्वास उठ जाता है। यही उस समय भी हुआ।

भारत में भी यही स्थिति थी। भारत में चारों ओर गरीबी, भुखमरी, अकाल व भयानक शोषण व्याप्त था। ऐसी स्थिति में लोगों का मार्क्‍सवादी दर्शन से प्रभावित होना बहुत हद तक जायज था। किन्तु भारत एक आध्यात्मिक देश है। भारत शब्द का तो अर्थ ही है अध्यात्म में लीन रहनेवाला। शरीर की जरूरतें कुछ समय तक के लिए तो बड़ी लग सकती हैं किन्तु हमेशा ही बड़ी रहेंगी यह भारत में संभव नहीं है। ब्रिटिश शासन का दौर गुजरा और हम स्वतंत्र हुए। किन्तु उस दौर के मार्क्‍सवादी झंडाबरदारों का वर्ग संघर्ष आज तक समाप्त नहीं हुआ। आज भी मार्क्‍सवादी अवशेष बात-बात में अपनी प्रासंगिकता जाहिर करने की कोशिश करते हैं। सामाजिक समानता की आड़ में सत्ता तक पहुँचने के प्रयास में लगे हैं।

दरअसल मार्क्‍सवाद का सामाजिक समानता से भी कोई लेना-देना नहीं है बल्कि सत्ता प्राप्ति ही इसका अंतिम ध्येय है। इसके लिए यह दर्शन रोटी, कपड़े, और मकान की आड़ में सामाजिक समानता की बात करता हुआ व्यक्ति के सामने आता है। इस रूप में आकर यह आर्थिक रूप से जूझते व्यक्ति को तत्काल ही आकर्षित करता है। जिन दिनों रूस और चीन में मार्क्‍सवाद जड़ें जमा रहा था उन दिनों भी सामाजिक समानता कहीं नहीं थी। समाज निरकुंश शासक और शोषित प्रजा के बीच बंटा हुआ था।

स्वयं जिन देशों में मार्क्‍सवाद आया मसलन रूस और चीन उन देशों में भी यह विचारधारा अब शेष नहीं बची है। सामाजिक समानता की आड़ में मार्क्‍सवाद इन देशों में व्यक्ति की निजी स्वतंत्रता को निगल गया। रूस में बर्बर स्टालिन के शासनकाल में हजारों-लाखों लोग मौत के घाट उतार दिये गए। चीन में माओ-त्से तुंग के समय बेगुनाह लोग गाजर-मूली की तरह बेहिचक काट दिये गये। क्यों? दो कारणों से। पहला, क्योंकि शरीर पदार्थ भर है, आत्मा नाम का कोई तत्व उसमें नहीं होता। जब शरीर केवल पदार्थ है तो उसे मारने-काटने में कोई हिचक कैसी। स्टालिन और माओ केवल इसी कारण इतने बड़े पैमाने पर निर्दयतापूर्वक मार-काट कर सके। हजारों-लाखों की हत्या के बाद भी उन्हें किसी प्रकार की कोई ग्लानि नहीं हुई।

दूसरा, रूस और चीन में जनता के बहुत बड़े वर्ग ने स्टालिन और माओ के अनुसार जीने से मना कर दिया। व्यक्ति की स्वतंत्रता का मार्क्‍सवाद में कोई स्थान नहीं है। शासन अपने आप को समाज उद्वारक मशीनरी के रूप में प्रोजक्ट करता है। समाज उद्वार की इस प्रक्रिया में जो भी बाधा बनता है, उसे शासन केवल और केवल मौत के घाट उतार देता है। शासन के विपरीत विचार रखना भर ही मार्क्‍सवाद में गुनाह है।

वर्तमान में भी मार्क्‍सवाद निरंकुश सत्ता के अपने एजेंडे पर कायम है। भारत में ही, केरल और पश्चिम बंगाल जहां मार्क्‍सवादी सरकारें है, इनकी निरंकुश कार्यप्रणाली को देखा जा सकता है। केरल के कन्नूर इलाके में कम्यूनिस्टों द्वारा बड़ी निर्दयता से संघ के कार्यकर्ताओं को मौत के घाट उतार दिया गया। पश्चिम बंगाल में नन्दीग्राम का सरकारी नरसंहार तो गुजरात के दंगों को भी बौना सिद्व कर गया। गुजरात के दंगों पर माडिया कम से कम आज तक किसी की आलोचना तो कर रहा है। गुजरात के मामले में कम से कम जांच कमीशन तो बिठाए गए। लेकिन नन्दीग्राम के मुद्दे पर क्या मजाल माडिया की कि कोई स्टिंग ऑपरेशन हो जाए। क्या मजाल किसी की कि कोई जांच कमीशन बैठाए। केन्द्र सरकार तो उस समय टिकी ही माक्र्सवादियों के दम पर थी। क्या मजाल थी नन्दीग्राम के लोगों की कि वह सरकार की इच्छा का विरोध करें। शासन की इच्छा के विपरीत जाने की मार्क्‍सवाद में इजाज़त नहीं है। जनता की कोई स्वतंत्रता नहीं है। जनता को केवल रोटी, कपड़ा और मकान देकर, लेकर और फिर देकर के खेल में उलझाए रखो। सामाजिक समानता और वर्ग संघर्ष का खेल खेलकर जनता को मूर्ख बनाए जाओ और सत्ता की जोड़-तोड़ में लगे रहो।

भारत एक लोकतांत्रिक राज्य है। यहां सभी प्रकार के विचारों को पनपने की छूट है। केवल इसीलिए भारत के दो राज्यों में मार्क्‍सवादी सरकारें हैं। किसी मार्क्‍सवादी राज्य में आपको लोकतांत्रिक सरकारें नहीं मिलेंगी। लोकतंत्र में मार्क्‍सवाद पनप सकता है किन्तु मार्क्‍सवाद में लोकतंत्र नहीं।

यहां विषय मार्क्‍सवाद की केवल राजनीति आलोचना तक ही सीमित हो गया है, थोड़ा आगे बढ़ते हैं। क्या आपने अपने आसपास कभी किसी मार्क्‍सवादी को विकसित होते देखा है। जरा विश्वविद्यालय कैंपस के किसी मार्क्‍सवादी का हुलिया याद कीजिए। फटे जूते, हजारों सलवटें पड़ा कुर्ता, लंबे बाल, लंबी दाढ़ी, मुँह में सिगरेट, हाथ में चाय। यह विकृत स्थिति इसलिए क्योंकि शरीर को केवल एक पदार्थ भर मान रखा है। किन्तु शरीर केवल पदार्थ नहीं है। मस्तिष्क की प्राकृतिक अवस्था और उसमें ज़बर्दस्ती अप्राकृतिक रूप से ठुँसाए गए मार्क्‍सवादी विचारों के संघर्ष का परिणाम ही यह विकृत स्थिति है। अब यह नही कहा जा सकता कि व्यक्ति की गरीबी इस विकृत अवस्था की जिम्मेदार है। विश्वविद्यालय कैंपस में अच्छे-भले घरों से आने वाले भी इसी हालत में देखे जा सकते हैं। जब दर्शन ही विकृत है तो उसकी भौतिक उपस्थिति भी विकृत ही होगी। इसी संबंध में एक बात और। जब शरीर एक पदार्थ भर है तो पूरा ध्यान उसकी दैहिक आवश्यकताओं की पूर्ति की ओर ही होना चाहिए। अत: मार्क्‍सवादियों में यौन शुचिता बेहद दुर्लभ है।

मार्क्‍सवादी दर्शन सूक्ष्म तत्व को देखने और पकड़ने में असफल रहा है। किसी मस्तिष्क को यदि काट दिया जाए तो वहां विचार नाम की कोई वस्तु नहीं दिखेगी। किसी हृदय को यदि चीर दिया जाए तो वहां प्रेम नाम की कोई वस्तु नहीं मिलेगी। किन्तु इस कारण यह नहीं माना जा सकता कि विचार या प्रेम होते ही नहीं है। दरअसल मार्क्‍सवाद व्यक्ति को भौतिक आवश्यकताओं तक ही सीमित कर देता है। व्यक्ति केवल रोटी, कपड़ा और मकान के लिए ही जीने वाला पशु भर रह जाता है। इस अर्थ में मार्क्‍सवाद एक दरिद्र व्यक्ति का दर्शन तो हो सकता किन्तु आध्यात्मिक उन्नति में प्रयासरत या दूसरे अर्थों में एक भारतीय का दर्शन कभी नहीं हो सकता। भारतीय दर्शन शरीर के आगे आत्मा और आत्मा के बाद मोक्ष तक जाने वाला दर्शन है। (नवोत्थान लेख सेवा हिन्दुस्थान समाचार)

हत्या मामले में 21 कम्युनिस्टों को उम्रकैद

पश्चिम बंगाल में हुगली की एक अदालत ने 20 नवंबर 2008 को माकपा नेता की हत्या के दो साल पुराने एक मामले में इसी पार्टी के 21 कार्यकर्ताओं को उम्रकैद की सजा सुनाई है।
पश्चिम बंगाल में हुगली की एक अदालत ने माकपा नेता की हत्या के दो साल पुराने एक मामले में इसी पार्टी के 21 कार्यकर्ताओं को उम्रकैद की सजा सुनाई है।
आरामबाग फास्ट ट्रैक अदालत के अतिरिक्त जिला और सत्र न्यायाधीश गौतम सेनगुप्ता ने माकपा के किसान नेता जहूर अली की मई 2006 में हत्या के मामले में 21 कार्यकर्ताओं को उम्रकैद की सजा सुनाई। अदालत ने दोषी ठहराए गए सभी लोगों पर 25-25 हजार रुपए का जुर्माना भी लगाया। अभियोजन पक्ष के मुताबिक बुलुंदी गांव के जहूर अली की एसके असगर अली के नेतृत्व में 21 माकपा कार्यकर्ताओं ने हत्या कर दी थी।

Thursday 20 November, 2008

पश्चिम बंगाल में फिर लगा माकपा की साख पर बट्टा

सिंगुर का भूत न तो माकपा का पीछा छोड़ रहा है और न ही उसका अगुवाई वाली राज्य की वाममोर्चा सरकार का। अभी टाटा मोटर्स के वहां से अपनी छोटी परियोजना को समेट कर गुजरात ले जाने की वजह से सरकार के दामन पर लगे दाग धुले भी नहीं थे कि तापसी मलिक हत्याकांड में पार्टी के दो नेताओं को आजीवन कारावास की सजा मिलने से उसे करारा झटका लगा है।
माकपा के नेता अब अपनी साख बचाने के लिए चाहे जो कहें, इस मामले से पार्टी को भारी नुकसान पहुंचा है। इससे साफ है कि पार्टी ने सिंगुर में जमीन अधिग्रहण विरोधी आंदोलन को दबाने के लिए कैसे बाहुबल का इस्तेमाल किया था। इसी के तहत कृषि जमीन रक्षा समिति की सक्रिय नेता तापसी (18) के साथ न सिर्फ सामूहिक बलात्कार किया गया, बल्कि जीवित अवस्था में ही शरीर पर डीजल छिड़क कर उसे जला दिया गया।
हालांकि माकपा के आला नेता इसे पार्टी के खिलाफ राजनीतिक साजिश करार देते हैं। पार्टी ने इस मामले में हाईकोर्ट में अपील करने की बात भी कही है। माकपा के प्रदेश सचिव विमान बोस, जो वाममोर्चा के अध्यक्ष भी हैं, कहते हैं कि आजीवन कारावास की सजा के बावजूद इन दोनों नेताओं सुहृद दल और देबू मलिक को पार्टी से निकाला नहीं जाएगा। दोनों बेकसूर हैं और राजनीतिक साजिश के तहत उनको फंसाया गया है।

माकपा के नेता अब अपनी साख बचाने के लिए चाहे जो कहें, इस मामले से पार्टी को भारी नुकसान पहुंचा है। इससे साफ है कि पार्टी ने सिंगुर में जमीन अधिग्रहण विरोधी आंदोलन को दबाने के लिए कैसे बाहुबल का इस्तेमाल किया था। इसी के तहत कृषि जमीन रक्षा समिति की सक्रिय नेता तापसी (18) के साथ न सिर्फ सामूहिक बलात्कार किया गया, बल्कि जीवित अवस्था में ही शरीर पर डीजल छिड़क कर उसे जला दिया गया।

इस अदालती फैसले का बाद विपक्ष ने बुध्ददेव भट्टाचार्य की अगुवाई वाली राज्य सरकार के इस्तीफे की मांग तेज कर दी है। प्रदेश कांग्रेस नेता मानस भुइयां कहते हैं कि अब सरकार को इस्तीफा दे देना चाहिए। कांग्रेस की पश्चिम बंगाल इकाई के कार्यकारी अध्यक्ष प्रदीप भट्टाचार्य कहते हैं कि अदालत का यह फैसला माकपा के लिए झटका है। उनके मुताबिक, अगर सीबीआई के बजाय राज्य पुलिस ने तापसी हत्याकांड मामले की जांच की होती तो सच्चाई कभी सामने नहीं आती। उधर, अदालत के फैसले का स्वागत करते हुए तापसी के पिता मनोरंजन ने कहा है कि दल और मलिक को मृत्युदंड की सजा मिलने पर उन्हें राहत मिलेगी। तृणमूल कांग्रेस नेता ममता बनर्जी तो पहले से ही सरकार के इस्तीफे की मांग करती रही हैं। उन्होंने कहा है कि तापसी की हत्या उस वक्त हुई जब सिंगुर में निषेधाज्ञा लागू थी। वे कहती हैं कि प्रशासन अपनी जिम्मेदारियों से बच नहीं सकता और राज्य के प्रशासनिक मुखिया तथा गृहमंत्री के रूप में अपनी विश्वसनीयता खो चुके मुख्यमंत्री बुध्ददेव भट्टाचार्य को पद पर बने रहने का कोई हक नहीं है। तृणमूल कांग्रेस नेता ने कहा कि माकपा ने पहले दावा किया था कि तापसी की हत्या उसके पिता ने की थी और मामले को रफादफा करने के लिए राज्य सरकार ने उसकी जांच सीआईडी को सौंप दी थी।

हुगली जिले की एक अदालत ने पार्टी की सिंगुर जोनल समिति के सचिव सुहरिद दला और समर्थक देबू मलिक को अदालत ने आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी। तापसी ने टाटा मोटर्स की नैनो कार परियोजना के लिए जमीन अधिग्रहण के विरोध में किसानों को एकजुट किया था।

अदालत ने दोनों पर 10-10 हजार रुपए का जुर्माना भी लगाया है। माकपा की केंद्रीय समिति के सदस्य विनय कोनार समेत कई शीर्ष नेता सिंगुर से दल को बेकसूर बताकर उनके जबर्दस्त बचाव में लगे हुए थे। तापसी का झुलसा हुआ शव 18 दिसंबर 2006 को सिंगुर में बाजेमेलिया के बाड़ लगे क्षेत्र में एक गङ्ढे से मिला था। वह जगह अब कार परियोजना परिसर के भीतर थी। इस घटना के विरोध में सिंगुर में नैनो परियोजना के लिए भूमि अधिग्रहण्ा के खिलाफ प्रदर्शनों का सिलसिला भड़क उठा था। मामले की जांच पहले सीआईडी कर रही थी लेकिन बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शनों के चलते पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुध्ददेव भट्टाचार्य ने इसे सीबीआई को सौंप दिया।

यहां राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि पहले नंदीग्राम, फिर सिंगुर और अब तापसी हत्याकांड पर अदालती फैसले ने माकपा की छवि को और धूमिल तो किया ही है साथ ही सरकार और माकपा के खिलाफ विपक्ष को एक ठोस मुद्दा भी दे दिया है।
लेखक-प्रभाकर(प्रभासाक्षी से साभार)

Tuesday 18 November, 2008

कम्युनिस्टों की सच्चाई

'कम्युनिस्ट पार्टी का इतिहास गलतियों का इतिहास है।' ये शब्द किसी राष्ट्रवादी के नहीं वरन् प्रख्यात 'प्रगतिवादी' साहित्यकार राहुल सांकृत्यायन के हैं।
कम्युनिस्ट हमेशा इस देश की संस्कृति का अपमान करने में गौरवान्वित महसूस करते हैं। वे भारतीय कहलाने और हिंदू कहे जाने पर शर्म महसूस करते हैं। विडम्बना यह है कि वे फिलीस्तीन में मारे जा रहे मुस्लिमों के लिए धरना-प्रदर्शन तो करते हैं, लेकिन उन्हें कश्मीरी हिंदुओं पर हो रहे अत्याचार नहीं दिखायी देते।
जो वामपंथ को ठीक से नहीं जानते उन्हें आश्चर्य होता है कि अमुक मुद्दे पर वामपंथ ने ऐसा रवैया क्यों अपनाया। लेकिन जो वामपंथ के इतिहास का जरा सा भी ज्ञान रखते हैं वे कतई आश्चर्य नहीं करते। यह बात कला, साहित्य और राजनीति, तीनों के विषय में सच है।

बस, राष्ट्रविरोध और हिंदूविरोध ही दो ऐसे मापदण्ड हैं जिन पर वामपंथ का पूरा ढर्रा निर्भर करता है। वस्तुत: इसके कारण भी कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना में ही निहित हैं। जिस तरह देश में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी आदि पार्टियां हैं उस तरह से कम्युनिस्ट पार्टी नहीं है। यह भारत की कम्युनिस्ट पार्टी है। अर्थात् यह कम्युनिस्ट पार्टी की भारत स्थित 'शाखा' है। अत: इसके निर्णय स्वतंत्र नहीं हो सकते। वास्तव में भारतीय कम्युनिस्टों ने देशभक्ति सीखी ही नहीं। चाहे वह वंदेमातरम् का विरोध हो या सरस्वती वन्दना का अपमान। कम्युनिस्ट हमेशा इस देश की संस्कृति का अपमान करने में गौरवान्वित महसूस करते हैं। वे भारतीय कहलाने और हिंदू कहे जाने पर शर्म महसूस करते हैं। विडम्बना यह है कि वे फिलीस्तीन में मारे जा रहे मुस्लिमों के लिए धरना-प्रदर्शन तो करते हैं, लेकिन उन्हें कश्मीरी हिंदुओं पर हो रहे अत्याचार नहीं दिखायी देते।

वास्तव में भारतीय वामपंथी लगातार रूस और चीन की कम्युनिस्ट पार्टियों द्वारा बेवकूफ बनाये जाते रहे। इन्हीं कम्युनिस्टों की युवा विकृति 'आइसा' (ऑल इण्डिया स्टूडेंट्स एसोसिएशन) के कार्यकर्ता अपने संस्कारों को भूलकर नशे की तरंग में सामाजिक स्तर पर बदलाव की मांग करते हैं। वैसे तो 'आइसा' अहिंसा की बात करती है लेकिन इसके ही कार्यकर्ता नक्सलियों की वैचारिक खुराक बनते हैं। मजे की बात यह है कि 'आइसा' कार्यकर्ता 'नाइक' के जूते और 'ली' की जींस पहनकर अमरीकी पूंजीवाद का विरोध करने की बाते करते हैं। 'आइसा' के ब्रांड अम्बेसडर गोरख पांडेय जिस 'बिरटेन हाथ बिकानी' की चर्चा करते हैं उसके हाथों भी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी कई बार बिकी है। भारत में श्रमिक और कृषक दल की स्थापना करनेवाले लोगों में पर्सी ई ग्लैडिंग्स, फिलिप स्पैट आदि अंग्रेज थे। आज भी कम्युनिस्ट पार्टी को बाहर से ही दिशा-निर्देश मिलते हैं।

अभी हाल में टाटा का प. बंगाल छोड़कर गुजरात जाना कम्युनिस्टों के मुंह पर करारा तमाचा है। प. बंगाल के मुख्यमंत्री बुध्ददेव भट्टाचार्य ने अपने आका स्टालिन के दिखाये रास्ते पर चलकर तानाशाही दिखाई है। वे भूल गये कि यह रूस नहीं, भारत है। कम्युनिस्टों की तानाशाही को यह करारा जवाब है। पर कम्युनिस्ट और गैर कम्युनिस्ट में यही फर्क है कि गैर कम्युनिस्ट अपनी भूल पर अफसोस करता है, लेकिन कम्युनिस्ट अपनी शर्मिंदगी को भी बौध्दिकता का जामा पहनाकर सही सिध्द करता है।

-अंजनी कुमार श्रीवास्तव
208, चन्द्रभागा, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली

Saturday 15 November, 2008

मध्य प्रदेश में भी एक बंगरप्पा?

लेखक- अम्बा चरण वशिष्ठ
सशक्त
भारतीय जनतंत्र की एक कमजोरी देश में बढ़ रही राजनीतिक दलों की संख्या पर नियंत्रण कर पाने में विफलता है। जिस प्रकार हमारी प्रतिदिन बढ़ती जनसंख्या का कारण अनियंत्रित यौन संबंध है उसी प्रकार लगभग प्रतिदिन पैदा होने वाले नये राजनीतिक दलों का कारण हमारे नेताओं के मन में पनपता अनियंत्रित अहम और महत्वाकांक्षा है।
सुश्री भारती के अपने भाई उनका साथ छोड़ गए हैं। उनके अपने ही दल में काफी उठाहपोह है। ऐसी स्थिति में उन जैसा व्यक्तित्व सत्ता में आने का दिवास्वप्न देखता है तो यह समझ के बाहर की बात है। चुनाव परिणाम कुछ भी निकलें, पर आज इतना तो आसानी से कहा ही जा सकता है कि कर्नाटक में श्री एस. बंगरप्पा की तरह मध्यप्रदेश में उमा भारती भी अंतत: घाटे में ही रहेंगी।
एक कारण यह भी है कि पिछले 61 वर्षों में भारत में ऐसा कोई भी दल नहीं हुआ जो डाले गये मतों का 50 प्रतिशत से अधिक प्राप्त कर सत्ता में आया हो। भारत में अब तक चुनाव में कभी भी 70 प्रतिशत से अधिक मत नहीं पड़े। इसका यही अर्थ निकलता है कि भारत पर जिस भी राजनीतिक दल/गठबंधन ने शासन किया उसे मत संख्या का एक-तिहाई से अधिक कभी भी वोट नहीं मिला।


हमारे नेता जन्म तो किसी दल विशेष में लेते हैं और उसी में पालन-पोषण के बाद बड़े होते हैं। पर ज्यों ही वह पार्टी उनकी सनक के अनुसार काम नहीं कर पाती तो उनके दम्भ और अहंकार की आग भड़क उठती है जिसे उनके चमचे हवा देते हैं और इस अहम् और महत्वाकांक्षा के सम्भोग से जन्म लेता है एक नया राजनीतिक दल। सच तो यह भी है कि हमारे राजनीतिक दलों में व्यक्तियों से सदैव न्याय नहीं होता और न ही योग्यता को सम्मान ही मिलता है। पर यह भी तो सच है कि यदि हम पार्टी के अंदरूनी गणतंत्र में विश्वास रखते हैं तो हमें अपने गिले-शिकवे पार्टी के अंदर रह कर ही दूर करने चाहिए और भीतर से ही न्याय की लड़ाई लड़नी चाहिए। पर ऐसा नहीं होता। अहम् में आगबबूला हमारे नेता पार्टी और इसके नेतृत्व को अपने साथ हुयें अन्याय के लिए सबक सिखाने का प्रण ले बैठते हैं। कई तो यहां तक समझ बैठते हैं कि यदि वह है तो पार्टी है और यदि वह नहीं तो कुछ भी नहीं।


तुलना प्रिय तो नहीं होती पर इससे बचना भी मुश्किल है। कर्नाटक के श्री एस. बंगरप्पा और मध्यप्रदेश की सुश्री उमा भारती के उदाहरण काफी कुछ एक समान हैं। दोनों ही अपने-अपने प्रदेशों के मुख्यमंत्री रह चुके हैं। दोनों ही, ठीक या गलत, अपने-अपने पार्टी के नेतृत्व से संतप्त हैं और वे समझते हैं कि पार्टी ने उनके साथ न्याय नहीं किया।


जब श्री बंगरप्पा कर्नाटक में कांग्रेसी मुख्यमंत्री थे तो हाईकमान ने उन्हें त्यागपत्र के लिए बाध्य किया। 1989 के चुनाव के समय उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी, अलग कर्नाटक कांग्रेस पार्टी का गठन किया और 224 में से 218 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े कर दिए। तब सत्तासीनं कांग्रेस सरकार सत्ता विरोधी लहर और बंगरप्पा के विरोध के नीचे ढह गयी और वह 178 विधायकों के स्थान पर केवल 34 सीट ही जीत सकी और मत प्रतिशत 43.76 से गिर कर 26.95 रह गया। जहां कांग्रेस का मत प्रतिशत 16.81 घटा, वहीं भाजपा ने अपना मत प्रतिशत 4.14 से बढ़ाकर 16.99 प्रतिशत कर लिया और उसके विधायकों की संख्या 4 से बढ़कर 40 हो गयी। जनता दल का मत प्रतिशत 27.08 (24 विधायक) से बढ़कर 33.54 (115 विधायक) हो गया और वह सत्ता में आ गयी। बंगरप्पा की कर्नाटक कांग्रेस ने सत्ताधारी कांग्रेस के 7.31 प्रतिशत (विधायक केवल 10) वोट काटे पर उसे सत्तााविहीन होना पड़ा।


राजनेता अपनी एक टांग कटवाने के लिए सदा तत्पर रहते हैं यदि इससे उनके विरोधी की दोनों टांगें कट जाएं। यही हुआ कर्नाटक में। बंगरप्पा तो पहले ही सत्ता खो बैठे थे और इसके आगे उनके पास खोने के लिए कुछ था नहीं। इसलिए उनका तो बड़ा सूक्ष्म संकीर्ण लक्ष्य था: ''अगर वह नहीं, तो कांग्रेस भी नहीं।'' जब कांग्रेस के हाथ से सत्तााछिन गयी तो बंगरप्पा के हाथ तो सत्ता नहीं आयी पर वह इस बात से ही खुश थे कि उन्होंने कांग्रेस को सत्ता में आने नहीं दिया।


राजनीति में या तो व्यक्ति को स्वयं जीत जाना चाहिए या फिर उसकी पार्टी जीत जानी चाहिए। उसके कारण यदि किसी तीसरे व्यक्ति या पक्ष को लाभ हो जाये, यह तो दिलेरी और बहादुरी की बात नहीं हुई। यदि ऐसा होता है तो यह तो बंदरबांट का ही उदाहरण बन जाता है जिसमें दो व्यक्तियों की लड़ाई में तीसरा लाभ उठा जाता है।


अंतत: हुआ क्या? राजनीति के अकेले राही श्री बंगरप्पा विभिन्न पार्टियों में मेढक की कूद लगा चुके थे। अंतत: उन्हें मिली स्वयं और अपने पुत्रों के लिए कर्नाटक विधानसभा में एक अशोभनीय हार। 2008 के कर्नाटक चुनाव तक श्री बंगरप्पा एक अविजित नायक थे जिसने कभी कोई चुनाव नहीं हारा था। पर महत्वाकांक्षा की भूख और बदले की भावना ने उन्हें कहीं का न छोड़ा। न सत्ता मिली और न ही सम्मान।


वर्तमान स्थिति में ऐसा लगता है कि मध्यप्रदेश में भी बंगरप्पा का इतिहास दोहराया जा सकता है। सुश्री उमा भारती की भारतीय जनशक्ति पार्टी प्रदेश की सभी 230 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ने जा रही है। अपने स्वार्थी उद्देश्य और मंन्सूबों की पूर्ति के लिए सुश्री भारती के अहम और दम्भ को हवा देने वालों की कमी नहीं है। विधानसभा चुनाव में उनकी उपस्थिति से किसी को लाभ होने वाला है तो किसी को हानि। पर वह तो अपनी पुरानी पार्टी को सबक सिखाने के लिए आतुर हैं: ''अगर मैं नहीं, तो वह भी नहीं''।


सुश्री भारती के अपने भाई उनका साथ छोड़ गए हैं। उनके अपने ही दल में काफी उठाहपोह है। ऐसी स्थिति में उन जैसा व्यक्तित्व सत्ता में आने का दिवास्वप्न देखता है तो यह समझ के बाहर की बात है। वह भाजपा को अवश्य सजा देना चाहती हैं। पर यह भी सच है कि सदा सभी की सब मुरादें पूरी नहीं होती। अभी यह भविष्यवाणी कर देना एक टेढ़ी खीर लगती है कि भाजपा अवश्य सत्ता में आ जाएगी या कांग्रेस जीत जाएगी। चुनाव विश्लेषण को एक विज्ञान तो अवश्य माना जा रहा है पर इसकी विश्वसनीयता पर अभी तक प्रश्नचिन्ह लगा हुआ है। और चुनाव विशेषज्ञ भी अभी यह यह भविष्यवाणी करने की जोखिम नहीं उठा पा रहे कि सुश्री भारती भाजपा को हराकर सत्ताा के गलियारे पर काबिज हो जाएंगी या कांग्रेस सत्ता में आ जाएगी।


चुनाव परिणाम कुछ भी निकलें, पर आज इतना तो आसानी से कहा ही जा सकता है कि कर्नाटक में श्री एस. बंगरप्पा की तरह मध्यप्रदेश में उमा भारती भी अंतत: घाटे में ही रहेंगी। यदि भाजपा अपनी सत्ता को सुरक्षित रखने में कामयाब हो जाती है तो राज्य के राजनीतिक परिदृश्य से उनका अस्त हो जाएगा। यदि कांग्रेस सत्ता में आ जाती है तो भी आगे सुश्री भारती का कोई रोल नहीं बचेगा क्योंकि जिस सुश्री भारती के कंधों की शक्ति पर कांग्रेस सत्ता में आएगी वह उनके कंधों की मालिश कर सशक्त नहीं बनाना चाहेगी। जब जनता दल कर्नाटक में श्री बंगरप्पा और कांग्रेस के वोट काटने के कारण सत्ता में आया था तो जनता दल श्री बंगरप्पा के प्रति कभी कृतज्ञ नहीं रहा।


आज श्री बंगरप्पा कहां हैं? वह राजनीतिक परिदृश्य से ओझल हैं। आज राजनीति में उनकी कोई गिनती नहीं है। तो क्या 8 दिसंबर को चुनाव परिणाम निकलने पर मध्यप्रदेश में भी एक और एस. बंगरप्पा उभरेगा?
(लेखक स्‍वतंत्र टिप्‍पणीकार हैं)

Friday 14 November, 2008

कामरेड का जुर्म

यह सिंगुर गांव की तापसी मलिक है. इसने अपनी ज़मीन टाटा को देने से मना कर दिया. इस युवती के साथ एक रात इसकी ज़मीन पर ही सीपीएम के लोगों ने बलात्कार किया और ज़िंदा जला दिया.

नई दुनिया की संपादकीय टिप्‍पणी, 14 नवंबर, 2008

कामरेड का जुर्म
सिंगूर का जुर्म सूखने का नाम नहीं ले रहा। अब एक फास्ट ट्रैक कोर्ट ने मार्क्‍सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के दो नेताओं को तापसी मलिक नाम की एक किशोरवय लड़की का यौन-उत्पीड़न कर उसकी निर्मम हत्या का दोषी पाया है। दोनों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई है। तापसी की दिसंबर 2006 में हत्या की गई थी। सीबीआई ने इस केस की जांच की है।
कानून व्यवस्था की गारंटी करने वाली सरकार के अपने पार्टी कामरेड हत्या और यौन-उत्पीड़न जैसे मामलों में दोषी पाए जाएं, यह शर्म की बात है मगर दुर्भाग्य से माकपा के राज्य-नेतृत्व को शर्म आनी तो दूर, न्यायपालिका के प्रति भी उसमें सम्मान की भावना नहीं है।
दोनों मुजरिमों में से एक सुहृद दत्ता तो माकपा की सिंगूर इकाई के जोनल सचिव रह चुके हैं और स्थानीय माकपाई राजनीति में वरिष्ठ नेता माने जाते हैं। हत्या में दूसरा सहयोगी देबु मलिक भी माकपा का समर्थक है। बताते हैं कि सुहृद दत्ता के निर्देश पर उसने इस जघन्य कांड को अंजाम दिया। यह तथ्य इस हत्याकांड को एक राजनीतिक आयाम भी देता है क्योंकि तापसी तृणमूल कांग्रेस की कार्यकर्ता थी, जिसकी अगुआई में सिंगूर का आंदोलन चला। विरोधियों को यों सजा देने का रिवाज प्रजातंत्र में कबूल नहीं किया जा सकता। यह अपराध इसलिए और भी शर्मनाक बन जाता है कि निजी या राजनीतिक बदले की भावना से एक लड़की को निशाना बनाया गया। पश्चिम बंगाल में माकपा की इकाइयों पर पहले भी ऐसे इल्जाम लग चुके हैं। कानून व्यवस्था की गारंटी करने वाली सरकार के अपने पार्टी कामरेड हत्या और यौन-उत्पीड़न जैसे मामलों में दोषी पाए जाएं, यह शर्म की बात है मगर दुर्भाग्य से माकपा के राज्य-नेतृत्व को शर्म आनी तो दूर, न्यायपालिका के प्रति भी उसमें सम्मान की भावना नहीं है। माकपा की राज्य इकाई ने कोर्ट का फैसला मानने से इनकार करते हुए ऊपर की अदालत में इस सजा के खिलाफ अपील करने का निर्णय किया है। पार्टी को यह पूरा प्रकरण पार्टी और वाममोर्चा सरकार के दुश्मनों की 'चाल' लगता है। सरकारी पार्टी की राज्य कमिटी कोर्ट के एक फैसले पर ऐसा बयान दे तो जनतांत्रिक सोच के लोगों को चिंता होती है। निचले कोर्ट से सजा पाए, मुजरिमों को पूरा अधिकार है कि वे ऊपर की अदालतों में अपील करें, लेकिन यह काम मुजरिम घोषित किए गए व्यक्तियों का है, न कि किसी राजनीतिक दल का-चाहे सजा प्राप्त व्यक्ति उसका पदाधिकारी ही क्यों न हो। पश्चिम बंगाल में कानून की धज्जियां पहले ही कम नहीं उड़ी हैं, (नंदी ग्राम, सिंगूर-रिजवानूर मामले तो कुछ मिसालें हैं), माकपा की राजनीतिक परिपक्वता तो इससे साबित होगी कि पार्टी राज्य में एक विधिसम्मत और न्यायसम्मत व्यवस्था लागू करे ताकि कम्यूनिज्म के चीनी प्रणेता माओत्से तुंग के शब्दों में 'सैकड़ों फूलों को खिलने का मौका मिले।' 'जनतंत्र' या 'जनवाद' दोनों की सच्ची पहचान यही है।

Thursday 13 November, 2008

संदेह के घेरे में क्यों हैं भारत के मुसलमान?

लेखक- मुजफ्फर हुसैन

भारतीय मुस्लिमों ने 1947 के बंटवारे के बाद पाकिस्तान न जाकर भारत में ही रहने का जो निर्णय किया था, क्या वह गलत था? स्वतंत्रता संग्राम में उन्होंने भाग लिया था, क्या वह इसलिए कि भारत में हो रही आतंकवादी घटनाओं के लिए एकमात्र उन्हें जिम्मेदार ठहराया जाए? इसका उत्तर है- नहीं, और कदापि नहीं। लेकिन यह भी उतना ही सच है कि जिहादी संगठनों द्वारा जिस तरह से आतंकवाद चलाया जा रहा है उसे जागरूक मुसलमानों का वर्ग जनता के बीच प्रभावी ढंग से नहीं रख सका है कि जिहादियों द्वारा इस प्रकार की हरकतें करने के पीछे उनका उद्देश्य क्या है? यह सवाल पूछने से पहले ही मुसलमानों के नेता यह कहने लगते हैं कि मुसलमान इस प्रकार का कोई कृत्य नहीं करते हैं। यदि नहीं करते हैं तो फिर ये धमाके कौन करता है? सवाल केवल भारत का ही नहीं है, बल्कि पूरे विश्व का है। हो सकता है अमरीका और इस्रायल को कट्टरवादी मुसलमान दुश्मन मानते हैं इसलिए मुसलमान यह कह सकते हैं कि उनके नाम पर यह कुकर्म इस्रायल और अमरीका करते हैं, लेकिन वे इसका ठीकरा मुसलमानों के सर पर फोड़ देते हैं। चीन तो मुसलमानों का दोस्त है।

भारत के वामपंथी और मुसलमान दो शरीर एक जान जैसे हैं, फिर चीन के जियांग प्रांत में जो आतंकवाद चल रहा है उसमें मुसलमानों का नाम क्यों लिया जा रहा है? चीनी सरकार ने मुसलमानों की दाढ़ी और टोपी पर प्रतिबंध लगा दिया है। रमजान के दिनों में उन्हें रात्रि नमाज पढ़ने के लिए मस्जिद में जाने से रोका जाता है।
भारत के वामपंथी और मुसलमान दो शरीर एक जान जैसे हैं, फिर चीन के जियांग प्रांत में जो आतंकवाद चल रहा है उसमें मुसलमानों का नाम क्यों लिया जा रहा है? चीनी सरकार ने मुसलमानों की दाढ़ी और टोपी पर प्रतिबंध लगा दिया है। रमजान के दिनों में उन्हें रात्रि नमाज पढ़ने के लिए मस्जिद में जाने से रोका जाता है। इंडोनेशिया और मलेशिया मुस्लिम राज्य हैं, फिर भी वहां की सरकारें जिन्हें गिरफ्तार करती हैं, वे सभी मुसलमान होते हैं। जहां कहीं आतंकवाद है वहां मुस्लिम हाजिर हैं। इसलिए रफीक जकरिया जैसे बुध्दिजीवी को अपने राजनीतिक विश्लेषण में कहना पड़ा कि हर मुसलमान आतंकवादी नहीं है, लेकिन हर आतंकवादी मुसलमान है। सऊदी अरब में मक्का की घटना हो या फिर इजिप्ट में सरकार और अल बुरहान नामक आतंकवादी संस्था के बीच चलने वाला टकराव, वहां केवल मुसलमानों का नाम ही सामने आता है। अनेक इस्लामी देशों में आतंकवाद परवान चढ़ रहा है। भारत में खालिस्तानी आंदोलन चला तो सिख समाज के भीतर ही ऐसे लोग उभरे जिन्होंने इस आंदोलन को कुचल डाला। सांझा चूल्हा जैसी योजना बनाकर महिलाओं ने जिस प्रकार खालिस्तानी आंदोलन की कमर तोड़ी, वह ज्यादा पुरानी बात नहीं है।

अनेक मुस्लिम नेता यह कहते हैं कि भारत में इस्लामी आतंकवाद बाबरी ढांचा ढहने के बाद अस्तित्व में आया। तब सवाल उठता है कि पाकिस्तान में तो ऐसा कुछ नहीं हुआ, फिर वहां आतंकवाद क्यों आया? दलील दी जाती है कि लश्करे तोयबा, अल जिहाद, अल्लाह टायगर्स और जैशे मोहम्मद जैसे सैकड़ों आतंकवादी संगठन कश्मीर के नाम पर बने। लेकिन सिमी और उसका विकराल रूप इंडियन मुजाहिदीन तो सम्पूर्ण रूप से भारतीय है। उसके संस्थापक से लेकर कार्र्यकत्ता और उसमें काम कर रहे जिहादी, सभी तो भारतीय हैं, इसलिए उनका उद्देश्य क्या है, यह वे अभी तक स्पष्ट नहीं कर सके। यदि हम अन्य संगठनों को विदेशी मान भी लें तब भी इंडियन मुजाहिदीन का इस मामले में क्या जवाब है? भारत में तो लोकतंत्र है। वे अपना राजनीतिक दल बनाकर चुनाव लड़कर अपनी व्यथा व्यक्त कर सकते थे। उन्हें इस प्रकार से आतंकवादी बन जाने का निर्णय क्यों लेना पड़ा, इसका स्पष्टीकरण आज तक उसके किसी नेता ने नहीं दिया है।

इसका सीधा अर्थ यह हुआ कि भारत के मामले में उनकी कोई अन्य योजना है। आज भारत में एक कट्टरवादी मुस्लिम वर्ग हथियार और बम विस्फोट के आधार पर यहां की सरकार और जनता को आतंकित कर रहा है तो स्वतंत्रता से पूर्व वही अपनी इस्लाम आधारित योजनाओं के दम पर भारत को आतंकित कर रहा था। साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व का सिध्दांत, खिलाफत आंदोलन और अंतत: विभाजन की मांग, यह ब्लैकमेल करने की उनकी रीति-नीति थी। आज हथियार और विध्वंस के आधार पर भारत को तोड़ने की शरारत फिर से जारी है। पाकिस्तान बनाकर उनका पेट नहीं भरा, बंगलादेशियों की घुसपैठ के रूप में भी उनका समाधान नहीं हुआ इसलिए भारत सरकार को परेशान और दुखी करके दबाव के तहत किसी समझौते पर लाने की उनकी नीयत साफ झलकती है। वे सार्वजनिक रूप से तो 'इस्लामी स्टेट' बनाने की बात नहीं करते, लेकिन उनकी मंशा भीतर से यही है। पाकिस्तान की बात मुस्लिम आबादी के आधार पर की गई। इस बार फिर से 15 प्रतिशत मुस्लिम आबादी को सुविधाएं देने के नाम पर सरकार को ब्लैकमेल किया जा रहा है। पाकिस्तान उन क्षेत्रों से बना जहां मुसलमान बहुतायत में बसते थे, लेकिन इस समय भारत में मुसलमान सारे देश में फैले हुए हैं इसलिए किसी भी स्थान पर कोई बहुत बड़ी ताकत बनकर नहीं उभर सकते। मात्र हिंसा, आतंक और तोड़फोड़ से ही यहां की सरकार को अपनी मौजूदगी का अहसास दिला सकते हैं। एक समय था कि देश विभाजित होते थे, लेकिन अब तो विभाजित देश एक होने का सिलसिला चल रहा है इसलिए समाज के प्रवाह को देखकर आज इन कट्टरवादियों को निर्णय लेने का अवसर है। भारत में इन दिनों गठबंधन सरकार का युग है। आज वह समय नहीं है कि कोई एक पार्टी मुसलमानों का भला कर सकती है। कांग्रेस को भी इस बात का भान होना चाहिए कि मुस्लिम वोट राज्य स्तर की पार्टियों में बंट जाने वाले हैं। इसलिए एक वर्ग के तुष्टीकरण से उन्हें भी लाभ नहीं होने वाला है।

एक पाठशाला की गणवेश पहने विद्यार्थियों में यह पता नहीं लगाया जा सकता कि कौन पिछड़ा है और कौन पढ़ाई में तेज। कौन सा विद्यार्थी नवीं कक्षा का है कौन दसवीं कक्षा का? इसी प्रकार एक जैसे कपड़े, एक जैसी दाढ़ी और एक जैसी टोपी पहने हुए लोगों के भीतर यह ढूंढ पाना कठिन है कि कौन आतंकवादी है और कौन शरीफ, कौन समाजसेवी है और कौन समाजद्रोही। क्या बीस वर्ष पूर्व यह दृश्य देखने को मिलता था? कोई इसे इस्लामी पहचान की परिभाषा दे तो क्या इससे पहले के लोग नियमों का पालन नहीं करते थे? क्या वे सच्चे मुसलमान नहीं थे? अपने आपको दूसरों से अलग-थलग बताना ही आतंक फैलाने की शुरुआत है। अपनी वेशभूषा के लिए स्कूल, सेना और अन्य सेवाओं में चुनौती देना क्या इस बात का सबूत नहीं है कि वे स्वयं को औरों से भिन्न बताकर अपनी अलग पहचान कायम करना चाहते हैं? देश में प्रचलित भाषा और प्रचलित शिक्षा पध्दति को अपनाने से ही राष्ट्रीय प्रवाह की नींव पड़ती है। भिन्नता को भारतीय संस्कृति ने हमेशा अपने हृदय में स्थान दिया है, लेकिन उस भिन्नता में भी एकता होनी चाहिए। यदि भिन्नता ही रहेगी तो वह अलगाव होगा। यदि ओसामा और मुल्ला उमर बम के गोलों को आधार बनाकर किसी नए देश अथवा किसी नई राजनीतिक शैली को जन्म देना चाहते हैं तो आज इस उच्च तकनीक वाले अंतरराष्ट्रीय युग में यह कदापि संभव नहीं है। भारतीय मुसलमान इन बातों पर विचार करेंगे और उसे व्यवहार में लाएंगे तो फिर उनको कोई संदेह की नजरों से नहीं देखेगा।

इस्लामी इतिहास इस बात का साक्षी है कि मुस्लिम राजनीति जब कभी दोराहे पर पहुंची है तब उसके सामने यह सवाल उठा कि वे अत्यंत संकीर्ण बन जाएं या फिर उदारवादी बनकर समस्या का हल खोजने का प्रयास करें। इस समय दुनिया में कट्टर विचारों पर चिंतन करने वाला वर्ग आम मुसलमानों पर हावी हो गया है। लोकतंत्र में केवल आप तकनीक, शिक्षा और मानवीय भावना से ही सफल हो सकते हैं। मुट्ठी भर लोग बम के धमाकों से एक सीमित वर्ग को सीमित समय के लिए भयभीत कर सकते हैं। उनकी क्षणिक सफलता का यह अर्थ नहीं होता कि उन्होंने दुनिया को जीत लिया है। इसलिए समय की मांग है कि मुस्लिम नेता इस मुद्दे पर गंभीरता से विचार करें।

Wednesday 12 November, 2008

मानव खाल में कम्युनिस्ट दरिन्दों को मानवीय उम्रकैद नहीं, दरिन्दाई फाँसी चाहिए


सिंगूर में माकपा के कद्दावर नेता सुहरिद दत्ता और उनके समर्थक देबु मलिक को भूमि अधिग्रहण विरोधी कार्यकर्ता तापसी मलिक की वर्ष 2006 में हुई हत्या के मामले में एक स्थानीय अदालत ने उम्र कैद की सजा सुनाई।

यह सिंगुर गांव की तापसी मलिक है. इसने अपनी ज़मीन टाटा को देने से मना कर दिया. इस युवती के साथ एक रात इसकी ज़मीन पर ही सीपीएम के लोगों ने बलात्कार किया और ज़िंदा जला दिया.

माकपा काडर के द्वारा आग में जलाये गये बच्चे

माकपा नेता व कार्यकर्ता हत्या के अपराधी

Tuesday 11 November, 2008

तापसी मलिक का ब्‍लात्‍कार कर उसे जलाकर मारने वाले दो कम्‍युनिस्‍ट नेता दोषी

यह सिंगुर गांव की तापसी मलिक है. इसने अपनी ज़मीन टाटा को देने से मना कर दिया. इस युवती के साथ एक रात इसकी ज़मीन पर ही सीपीएम के लोगों ने बलात्कार किया और ज़िंदा जला दिया.

माकपा काडर के द्वारा आग में जलाये गये बच्चे

पश्चिम बंगाल के एक कोर्ट ने तापसी मलिक हत्याकांड में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआईएम) के दो नेताओं को हत्या का दोषी पाया है। याद रहे कि तापसी मलिक सिंगुर में ज़मीन अधिग्रहण का विरोध कर रही थी। बीबीसी हिंदी के सौजन्‍य से यह खबर यह यहां प्रस्‍तुत है-

सिंगुर हत्याकांड: दो सीपीएम नेता दोषी

सुबीर भौमिक
बीबीसी संवाददाता, कोलकाता


तापसी मलिक सिंगुर में ज़मीन अधिग्रहण का विरोध कर रही थी।
सुप्रसिद्ध साहित्‍यकार महाश्‍वेता देवी ने जब निम्‍न पंक्तियां लिखी थी तो कॉमरेडों ने उनका उपहास उडाया था। सिंगूर में माकपा के रोंगटे खडे कर देने वाले आतंक के बारे में महाश्‍वेता ने लिखा था कि ''सिंगूर की जमीन जबरन अधिग्रहीत करने के विरोध में उस इलाके में जो लोग आंदोलनरत थे, उनमें एक प्रमुख नाम तापसी मालिक का भी था। उसने अनशन भी किया था। दिन भर भूखे रहने के बाद रात को खाना खाया और सो गई, किन्तु सूर्योदय नहीं देख पाई। वह जब तड़के नित्य कर्म करने मैदान गई, तो उसके साथ सामूहिक बलात्कार किया गया और उसके बाद उसके शरीर पर कैरोसिन तेल छिड़ककर उसे जला कर मार डाला गया। लगातार 30 वर्षों तक शासन में रहने के बाद वाममोर्चा के अधोपतन का ये हाल है। कहना न होना कि ये कम्युनिस्ट फासिस्ट हो गए हैं। जब कम्युनिस्ट फासिस्ट होते है, तो उनका फासिज्म देखकर पुराने जमाने के फासिस्ट भी लजा जाते हैं।''(वर्तिका से साभार, हिन्दी रूपान्तर:रंजू सिंह)

पश्चिम बंगाल के एक कोर्ट ने तापसी मलिक हत्याकांड में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआईएम) के दो नेताओं को हत्या का दोषी पाया है।
बुधवार को इस मामले में सज़ा सुनाई जाएगी। उल्लेखनीय है कि तापसी मलिक सिंगुर में ज़मीन का अधिग्रहण का विरोध करने वालों में ख़ासी सक्रिय थीं।

सिंगुर के एक खेत में 18 दिसंबर 2006 को तापसी मलिक की लाश बुरी तरह से जली हुई हालत में मिली थी।

पश्चिम बंगाल के हुगली ज़िले के चंदन नगर के अतिरिक्त मुख्य न्यायाधीश अमर कांति आचार्य ने सुहरिद दत्ता और देबू मलिक को तापसी मलिक की हत्या और षडयंत्र रचने का दोषी पाया है। सुहरिद दत्ता पश्चिमी बंगाल में सीपीएम के ज़िला स्तर के जाने-माने नेता हैं और देबू मलिक पार्टी के कार्यकर्ता हैं।

उनके वकील का कहना है कि वे इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ उच्च न्यायालय में ज़ल्दी ही अपील करेंगे।

तृणमूल का विरोध

ग़ौरतलब है कि सिंगुर इलाक़े में दिसंबर 2006 में जब 18 वर्षीय ग्रामीण महिला तापसी मलिक की कोलकाता के नज़दीक सिंगुर में लाश मिली, उस समय टाटा उद्योग समूह अपनी प्रस्तावित कार फ़ैक्टरी के लिए ज़मीन अधिग्रहण प्रक्रिया में जुटा हुआ था।


सिंगुर में किसानों और तृणमूल कार्यकर्ताओं ने भूमि अधिग्रहण का विरोध किया था।

हालाँकि कई प्रभावित किसानों ने वहाँ भूमि अधिग्रहण का विरोध नहीं किया था, लेकिन कई किसानों ने तृणमूल कांग्रेस कार्यकर्ताओं के समर्थन के साथ इस प्रक्रिया का विरोध किया था।

तापसी मलिक भी विरोध करने वाले लोगों में आगे थीं।

इस घटना के एक महीने बाद हत्या की जाँच को केंद्रीय जाँच ब्यूरो (सीबीआई) को सौंप दिया गया था। इसके बाद सीबीआई ने सत्तारूढ़ सीपीएम के वरिष्ठ नेता सुहरिद दत्ता और देबू मलिक को गिरफ़्तार किया था।

सीबीआई ने उनके ख़िलाफ़ एक विस्तृत चार्जशीट भी दाख़िल की थी।

जानकारों के मुताबिक सीपीएम ने सिंगुर में विपक्षी पार्टियों के विरोध को कुचलने की ज़िम्मेदारी सुहरिद दत्ता और उनके सहयोगी देबू मलिक को सौंपा था लेकिन उनकी गिरफ़्तारी के बाद मार्क्सवादी पार्टी को धक्का लगा।

मई 2008 में पंचायती चुनाव में सिंगुर में तृणमूल कांग्रेस ने सीपीएम को हरा दिया था और तृणमूल कांग्रेस ने अनिच्छुक ग्रामीणों की ज़मीन वापसी के अपने संघर्ष को और तेज़ किया था।

सिंगुर में कड़े विरोध के कारण ही टाटा ने अक्तूबर में नैनो कार बनाने की अपनी फ़ैक्ट्री को पश्चिम बंगाल से बाहर गुजरात ले जाने का निश्चय किया था।