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Friday 29 August, 2008

दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ (डूसू) चुनाव में लहराया ब्लॉग का परचम


अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् ने दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ (डूसू) चुनाव-प्रचार के मद्देनजर छात्रों तक अपनी बात पहुंचाने के लिए ब्लॉग का सहारा लिया है।

आधुनिकीकरण व तकनीकी युग के इस दौर में विद्यार्थी परिषद् ने आज दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ चुनाव-प्रचार में गति लाने को लेकर ब्लॉग का शुभारंभ किया, जिसका यूआरएल है- http://www.abvpdusu.blogspot.com/ इस साइट पर जहां विद्यार्थी परिषद की विचारधारा व उपलब्धियां प्रस्तुत की गई हैं, वहीं प्रतिदिन डूसू चुनाव-प्रचार से संबंधित फोटो गैलरी, समाचार-पत्रों की कतरनें की छाया-प्रति, प्रेस आमंत्रण, प्रेस-विज्ञप्ति अपलोड किए जायेंगे। इस साइट की यह विशेषता है कि अंग्रेजी के साथ-साथ हिन्दी में भी सामग्री प्रस्तुत की जा रही है।

उल्लेखनीय है कि एक ओर जहां विद्यार्थी परिषद अपने परंपरागत चुनाव-अभियान के तहत विश्वविद्यालय परिसर, कॉलेजों, हॉस्टलों व घरों में जाकर छात्रों से प्रत्यक्षत: संपर्क कर रही है, वहीं कम समय व कम खर्च में लाखों छात्रों तक पहुंचने के लिए ब्लॉग तथा सोशल नेटवर्किंग साइट का सहारा ले रही है।

Wednesday 27 August, 2008

भाजपा की विचारधारा-पंचनिष्ठाएं भाग-2


भारतीय जनता पार्टी के कार्य की प्रेरणा पार्टी संविधान में उल्लिखित पंचनिष्ठाएं हैं:

राष्ट्रवाद एवं राष्ट्रीय एकता
लोकतंत्र
गांधीवादी दृष्टिकोण पर आधारित समतामूलक समाज की स्थापना
सकारात्मक पंथनिरपेक्षता
मूल्य आधारित राजनीति
लोकतंत्र
हमारे संविधान ने राजसत्ता के संचालन के लिए लोकतांत्रिक पध्दति स्वीकार की है। लोकतंत्र मतदाता की इच्छा का आदर करने वाला तन्त्र है। भिन्न भिन्न देशों में यद्यपि निर्वाचन की भिन्न भिन्न पद्धतियों का प्रचलन है, किन्तु उन सबमें समान तत्व है लोक की सामूहिक इच्छा के आधार पर सरकार का चुना जाना। भाजपा लोकतांत्रिक व्यवस्था में निष्ठा रखती है, तानाशाही को अस्वीकार करती है और सत्ता के विकेन्द्रीकरण के पक्ष में है।

लोकतंत्र के प्रति भाजपा की निष्ठा पार्टी के त्रिवार्षिक संगठनात्मक चुनाव में अभिव्यक्त हुई है। पार्टी के कार्यकर्ता स्थानीय समिति से लेकर राष्ट्रीय अधयक्ष तक का चुनाव करते हैं। हर तीन वर्ष के बाद विभिन्न इकाइयों- स्थानीय समिति से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक के अधयक्ष बदल जाते हैं। संगठन की पुनर्रचना या नवीकरण होता है।

भाजपा ने समय-समय पर तानाशाही का और लोकतन्त्र को कमज़ोर करने वाली प्रवृत्तियों का विरोध किया है। 1975 में जब इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा की और सब प्रकार की स्वतंत्रताओं को स्थगित कर दिया तो भारतीय जनसंघ ने लोकतन्त्र की पुन:स्थापना के लिए संघर्ष में अग्रणी भूमिका निभाई। कांग्रेस ने निर्वाचित राज्य सरकारों को गिराने के लिए जब-जब राज्यपाल के पद का दुरूपयोग किया, हमने उसका कड़ा प्रतिकार किया है।

लोकतंत्र जनादेश पर आधारित राज्य व्यवस्था है। संसद और विधान मंडल, स्वतन्त्र प्रैस, स्वतन्त्र न्यायपालिका, स्वायत्ता निर्वाचन आयोग जैसी संस्थाएं लोकतन्त्र के सुचारू संचालन के लिए ज़रूरी है। कांग्रेस ने समय-समय पर इन लोकतान्त्रिक संस्थाओं पर अंकुश लगाने का प्रयत्न किया है और इनका अवमूल्यन किया है। भाजपा ने ऐसे सभी प्रसंगों में लोकतान्त्रिक संस्थाओं के सुदृढ़ीकरण के लिए आवाज़ उठाई है।

लोकतन्त्र में असहमति का सम्मान किया जाता है। सत्तापक्ष बहुमत में होने पर भी विपक्ष के विचारों का सम्मान करता है। विपक्ष के लिए भी रचनात्मक भूमिका निभाना ज़रूरी है। लोकतन्त्र में प्रतिशोध, टकराव और असहिष्णुता के लिए स्थान नहीं है। नीतिभेद रहते हुए भी दलों के बीच सहिष्णुता लोकतन्त्र को पुष्ट करती है।

निष्पक्ष चुनाव लोकतन्त्र का महत्वपूर्ण तत्तव है। बाहुबल और धानबल का इस्तेमाल कर जनादेश को हाइजैक कर लेना लोकतन्त्र को कमज़ोर करता है। दुर्भाग्य से भारतीय राजनीति में बाहुबल, अपराधीकरण और पैसे का प्रभाव बढ़ने से लोकतन्त्र विकृत हो गया है।

जाति और पंथ आधारित राजनीति लोकतन्त्र को कमज़ोर करने वाली प्रवृत्ति है। कांग्रेस और कुछ अन्य राजनीतिक दलों ने जाति आधारित और साम्प्रदायिक राजनीति का अनुसरण कर सामाजिक विभाजन को तीव्र किया है। वोट बैंक की राजनीति के चलते सामाजिक और राष्ट्रीय एकता कमज़ोर हुई है। भाजपा ने इन दलों की नकारात्मक प्रवृत्तियों को बराबर बेनकाब किया है।

लोकतंत्र के लिए लोकशिक्षण और लोक संस्कार का बहुत महत्व है। राजनीतिक दलों का यह कर्तव्य है कि वे लोक शिक्षण और लोक संस्कार द्वारा ऐसे लोकमत का पुरस्कार करें जिसकी नींव पर टिका लोकतंत्र स्वस्थ और मज़बूत हो सके। श्री दीनदयाल उपाध्‍याय ने स्वस्थ लोकतंत्र के लिए लोक शिक्षण को बहुत महत्व दिया है।

राजसत्ता और अर्थसत्ता के विकेन्द्रीकरण के बिना आम आदमी को सच्चे लोकतंत्र की अनुभूति नही हो सकती। सत्ता का केन्द्रीकरण लोकतंत्र की प्रकृति से मेल नहीं खाता। नीचे की इकाइयों को अधिक अधिकार देकर प्रभावी करना होगा। भारतीय जनसंघ और भाजपा ने पंचायती राज को मज़बूत बनाने का आग्रह रखा है। गांधी जी की ग्राम स्वराज्य की कल्पना भी राजसत्ता के विकेन्द्रीकरण पर आधारित है। क्रमश:

Tuesday 26 August, 2008

भाजपा की विचारधारा-पंचनिष्ठाएं


लेखक- प्रो ओमप्रकाश कोहली

भारतीय जनता पार्टी आज देश की प्रमुख विपक्षी राजनीतिक पार्टी हैं। सात प्रांतों में भाजपा की स्वयं के बूते एवं 5 राज्यों में भाजपा गठबंधन की सरकारें है। 6 अप्रैल, 1980 को स्थापित इस दल ने अल्प समय में ही देशवासियों के बीच अपना विशिष्ट स्थान बनाया है। पहले, भाजपा के विरोधी इसे ब्राह्मण और बनियों की पार्टी बताते थे लेकिन आज भाजपा के ही सर्वाधिक दलित-आदिवासी कार्यकर्ता सांसद-विधायक निर्वाचित है। इसी तरह पहले, विरोधी भाजपा को उत्तर भारत की पार्टी बताते थे और कहते थे यह कभी भी अखिल भारतीय पार्टी नहीं बन सकती है। वर्तमान में भाजपा ने दक्षिण भारत में भी अपना परचम फहरा दिया है। भाजपा में ऐसा क्या है, जो यह जन-जन की पार्टी बन गई हैं, बता रहे है भाजपा संसदीय दल कार्यालय के सचिव प्रो। ओमप्रकाश कोहली। पूर्व सांसद श्री कोहली दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं दिल्ली प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष रह चुके हैं। निम्न लेख को हम यहां पांच भागों में प्रकाशित करेंगे। प्रस्तुत है पहला भाग-

भारतीय जनता पार्टी और पूर्ववर्ती जनसंघ अन्य राजनैतिक दलों से अपनी अलग पहचान रखते हैं। यह पहचान राष्ट्रवाद और राष्ट्रीयता के प्रति उनके आग्रह के कारण है। जहां साधारणतया अन्य राजनैतिक दलों का उद्देश्य राजसत्ता प्राप्त करना है, वहीं भारतीय जनता पार्टी सत्ता को वृहत उद्देश्यों की प्राप्ति का साधन मानती है। वह वृहत् उद्देश्य है सामाजिक और राष्ट्रीय पुनर्रचना। राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान जो स्वप्न देखा गया था वह अभी अधूरा पड़ा है। अधूरे सपने को पूरा करना भारतीय जनता पार्टी अपना उद्देश्य मानती है। सामाजिक- राष्ट्रीय पुनर्रचना के उद्देश्य की पूर्ति तभी संभव है जब पार्टी उच्च निष्ठाओं, सिध्दान्तों और आग्रहों को लेकर चले।


भारतीय जनता पार्टी के कार्य की प्रेरणा पार्टी संविधान में उल्लिखित पंच निष्ठाएं हैं:



राष्ट्रवाद एवं राष्ट्रीय एकता
लोकतंत्र
गांधीवादी दृष्टिकोण पर आधारित
समतामूलक समाज की स्थापना
सकारात्मक पंथनिरपेक्षता
मूल्य आधारित राजनीति
राष्ट्रवाद एवं राष्ट्रीय एकता
भारत जैसे विशाल और विविधतायुक्त देश को बांधाने वाले तत्‍व क्या हैं? क्या एक शासन सत्ता देश को एक सूत्र में बांध सकती हैं?क्या संपूर्ण देश में एक संविधान और शासन होना एकता की गारंटी हो सकती है? क्या सुस्पष्ट भौगोलिक सीमाओं में बंधा होना अथवा भौगोलिक इकाई होना एकता की गारंटी हो सकती है? ये तत्व राष्ट्र की एकता के पोषक या सहायक तो हो सकते हैं राष्ट्रीय एकता के मूल अधिष्ठान नहीं हो सकते। मूल अधिष्ठान तो इस विविधातायुक्त देश में रहने वाले जन की प्रकृति चिति, या जीवन-पध्दति है जिसे आमतौर पर संस्कृति कहा जाता है। दीनदयाल उपाध्‍याय जी का कथन है कि 'व्यक्ति की भांति राष्ट्र की भी अपनी आत्मा होती है। उस आत्मा के अस्तित्व के कारण ही सारा राष्ट्र एकात्म बनता है। राष्ट्र की उस आत्मा को हमारे शास्त्रकारों ने ''चिति'' कहा है। प्रत्येक राष्ट्र की अपनी एक ''चिति'' होती है। ''चिति'' ही राष्ट्रीयता का चिह्न है। इसी ''चिति'' के कारण प्रत्येक राष्ट्र की संस्कृति को भिन्न व्यक्तित्व प्राप्त होता है। साहित्य, कला, धर्म, भाषा, सब इसी ''चिति'' की अभिव्यक्तियां हैं।' जाति, पंथ, भाषा आदि की विविधता होते हुए भी समान संस्कृति विविधतायुक्त भारत को एक सूत्र में बांधाने वाला तत्‍व है। भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रवाद की कल्पना न कोरी राजनीतिक कल्पना है, न संवैधानिक कल्पना, न भौगोलिक कल्पना यह सांस्कृतिक कल्पना है। इस कल्पना पर आधारित राष्ट्रवाद ही सांस्कृतिक राष्ट्रवाद है। भारतीय जनता पार्टी के कार्य के विभिन्न आयाम सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से प्रेरणा ग्रहण करते हैं।

देश में ऐसी बहुत सी शक्तियां है जिनकी मान्यता उक्त मान्यता से भिन्न है। वे मानते हैं कि भारत बहुसंस्कृतियों वाला देश है, इसलिए यह बहुराष्ट्रीयताओं का देश है। कांग्रेस के कुछ तत्तवों और वामपंथी तत्वों के ऐसे ही विचार है। भारतीय जनता पार्टी को यह विचार सर्वथा अस्वीकार्य है।


हम इस वास्तविकता की उपेक्षा नहीं कर सकते कि द्विराष्ट्रवाद की संकल्पना ने देश का विभाजन किया। जिन्ना, मुसलिम लीग और उसके अनुयायियों की यह मान्यता थी कि हिन्दू और मुसलमान दो अलग सभ्यताएं हैं और इसलिए ये दोनों समुदाय अलग-अलग राष्ट्र हैं। केवल एक भौगोलिक इकाई का हिस्सा होने मात्र से वे एक राष्ट्र नहीं हो जाते। इसमें से द्विराष्ट्र - हिन्दू राष्ट्र - मुस्लिम राष्ट्र - का विचार बल पकड़ता गया। परिणाम हुआ देश का विभाजन। देश के विभाजन ने हिन्दू-मुसलिम समस्या का समाधान नहीं किया। द्विराष्ट्रवादी या बहुराष्ट्रवादी सोच स्वतंत्रता के बाद भी जारी है जो बार-बार मुस्लिम तुष्टीकरण, अल्पसंख्यकवाद और वोट बैंक की राजनीति के रूप में प्रतिबिंबित होती है। भारतीय जनता पार्टी इस सोच का बराबर विरोध करती है और अपनी सोच को आग्रहपूर्वक स्थापित करती है कि भारत एक संस्कृति वाला एक राष्ट्र है जिसमें जाति, पंथ, भाषा आदि बहुविधा विविधता दिखायी पड़ती है।

कभी-कभी राष्ट्र और राज्य दोंनों का पर्यायवाची रूप में प्रयोग किया जाता है। यह सही नहीं है। राज्य एक राजनैतिक संकल्पना है और राष्ट्र सांस्कृतिक संकल्पना है। राज्य नहीं है तो भी राष्ट्र का अस्तित्‍व हो सकता है। लंबे समय तक यहूदी दुनिया के अलग-अलग देशों में बिखरे हुए थे और उनका अपना राज्य नहीं था । तो क्या यह माना जाये कि यहूदी राष्ट्रीयता नाम की कोई चीज़ थी ही नहीं। यहूदी राष्ट्रीयता की यह भावना ही आगे चलकर उनके राज्य इज़रायल के रूप में मूर्त हुई। यदि किसी जन या मानव समुदाय से उसका राज्य छिन जाये, वह किसी विदेशी सत्ता के अधीन हो जाये तो इससे उस समुदाय की राष्ट्रीयता नष्ट नहीं हो जाती। वह भावना के रूप में समुदाय के लोगों को बराबर सम्प्रभुता सम्पन्न राज्य प्राप्त करने के लिए प्रेरित करती रहती है।


इतिहास में ऐसे दृष्टांत भी मिलते हैं जब विभिन्न राष्ट्रीयताओं वाले मानव समुदायों को एक राज्य सत्ता के अंतर्गत बांधने का प्रयत्न किया गया। इससे एक राज्य तो अस्तित्तव में आ गया, पर समान राष्ट्रीयता के अभाव में आगे चलकर विखंडित हो गया। सोवियत संघ इसका उदाहरण है। सोवियत संघ के अंतर्गत अनेक राष्ट्रीयता वाले मानव समुदाय या इकाइयां सम्मिलित की गई थी किन्तु समान राष्ट्रीयता या समान संस्कृति के अभाव में वे एक नहीं रह पाये।

भारतीय जनता पार्टी राष्ट्रहित को पार्टी हित से ऊपर रखती है। राष्ट्रहित को क्षति पहुंचाने वाली प्रवृत्तियों के विरूध्द भारतीय जनता पार्टी ने सत्ता आंदोलन किया है। ऐसी प्रवृत्तियां जो राष्ट्र की एकता को कमज़ोर करती है, विभाजनकारी है, राष्ट्र की सुरक्षा के लिए खतरा हैं, राष्ट्र के स्वाभिमान को कमज़ोर करती हैं और राष्ट्र की अस्मिता तथा उसके प्रतीकों, मानदंडों और चिन्हों के प्रति उपेक्षा का भाव रखती हैं, भाजपा उन्‍हें निर्मूल करने के लिए बराबर आंदोलन करती रही है। आंदोलन के विषय बदलते रहे हैं लेकिन उनके पीछे प्रेरणा या दृष्टि बराबर राष्ट्रहित पोषण की रही है। फिर चाहे आंदोलन का विषय कश्मीर की अखंडता हो, बेरूवाड़ी का हस्तांतरण हो, वंदे मातरम् गान या सरस्वती वंदना के विरोध की मानसिकता हो, अयोध्‍या में राम मंदिर का निर्माण हो, समान नागरिक संहिता हो, आतंकवाद हो, नक्सलवाद हो, अल्पसंख्यकों का तुष्टीकरण हो, वोट की राजनीति हो, जातिवाद की विभाजनकारी प्रवृत्ति हो या ऐसे ही अन्य अनेक विषय हों। राष्ट्रवाद और राष्ट्रीयता की प्रेरणा से ही जनसंघ या भाजपा इन विषयों पर आंदोलन में प्रवृत्त हुए। ऐसे तत्तव और प्रवृत्तियां जो हमारी एकता को चुनौती देती हैं, भारतीय जनता पार्टी के आंदोलन के प्रिय विषय रहे हैं। बहुराष्ट्रवाद की सोच, क्षेत्रवाद, जातिवाद, अल्पसंख्यकों का तुष्टीकरण, माओवाद, नक्सलवाद, इस्लामी कट्टरवाद, राष्ट्रीय सम्प्रभुता को चुनौती, देश पर चीन का आक्रमण, पाकिस्तानी आक्रमण, बांग्लादेशी घुसपैठ आदि समय-समय पर सार्वजनिक क्षितिज पर उभरने वाले विषयों पर भाजपा के लाखों-लाख कार्यकर्ताओं ने आंदोलन किया और राष्ट्रहित के रक्षण और संवर्धन के लिए अनुकरणीय त्याग किया। राष्ट्र के लिए क्या हितकर और वांछनीय है और क्या अहितकर और अवांछनीय है यह विवेक भाजपा नेतृत्व अपने कार्यकर्ताओं में सदैव जागृत करता रहता है।


भारतीय जनता पार्टी जिस समान संस्कृति को राष्ट्रीयता का अधिष्‍ठान मानती है उसे हिन्दुत्व, भारतीयता और इंडियननैस किसी भी नाम से जाना जा सकता है। राष्ट्रीयता का यह बोध ही हिन्दुत्व है, यही भारतीयता है और यही हमारी जीवन पध्दति है।

राष्ट्रीय दृष्टिकोण को मजबूत करने के लिए राष्ट्र के प्रति पूर्ण समर्पण आवश्यक है। जो कुछ है वह राष्ट्र का है, मेरा नहीं। 'राष्ट्राय स्वाहा, राष्ट्राय इद्म न मम्।'


सांस्कृतिक समानता राष्ट्रीय एकता का आधारभूत तत्‍व होता है। एकता के अन्य पोषक तत्व हैं : भौगोलिक सान्निध्‍य, समान अतीत, भाषायी समानता, आध्‍यात्मिक एकता। ये सभी तत्‍व मिलकर किसी मानव समुदाय का एक राष्ट्र बनाते हैं। आतंरिक रूप से धर्म, भाषा, जाति जैसे विभाजक तत्वों के सक्रिय रहते हुए भी मानव समुदायों को उक्त तत्‍व एकरूपता प्रदान करते हैं। राजनैतिक समुदायों को एकता प्रदान करने वाली भावना उसकी राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद है। राष्ट्रवाद ही राष्ट्रीय सुरक्षा, राष्ट्रीय सम्मान, राष्ट्रीय प्रतिष्ठा, राष्ट्रीय हित और राष्ट्रीय सम्प्रभुता का स्रोत हैं।

राष्ट्रीयता की भावना को मज़बूत करने में समान इतिहास एक पोषक तत्‍व होता है। समान परम्पराएं मानव समुदाय को एक राष्ट्र का रूप देती हैं। समान विचारों एवं अनुभूतियों से युक्त होकर एक निश्चित भूभाग में रहने वाला मानव समुदाय राष्ट्र के रूप में ढलता है। राष्ट्र एक ऐसा मानव समुदाय है जिसकी एक स्वतंत्र राजनैतिक इकाई होना वांछित होने पर भी अनिवार्य नहीं है। राष्ट्र की अपनी पहचान होती है। इसे राष्ट्र की चिति या अस्मिता कहते हैं। भारतीय संस्कृति की पहचान उसके आध्‍यात्मिक रूझान के कारण है। आध्‍यात्मिकता हमारी चिति का वैशिष्टय हैं। राष्ट्रीयता वह भावनात्मक बंधान है जो किसी मानव समुदाय को एक जन में रूपातंरित करता हैं।


संक्षेप में, भारतीय जनता पार्टी एक देश, एक जन और एक संस्कृति की अवधारणा में अविचल विश्वास रखने वाला राजनीतिक दल है। जब कभी राष्ट्रीय हित को क्षति पहुंचती है तो भाजपा स्वाभाविक रूप में उद्वेलित होती है और राष्ट्रीय हित को क्षति पहुंचाने वाले तत्‍वों का प्रबल विरोध करती है।

भारतीय जनता पार्टी यह मानती है कि हमारी एक राष्ट्रीय जीवन पध्दति है जो न केवल अक्षुण्ण रहनी चाहिए बल्कि उसका सतत् पोषण और संवर्धन होते रहना चाहिए। हमारे सभी कार्यकलापों का उद्देश्य राष्ट्र का संरक्षण, कल्याण और अभ्युदय है। हमारी सीमाएं सुरक्षित रहनी चाहिए, क्षेत्रीय एकता बनी रहनी चाहिए और हमें अपनी ऐतिहासिक परम्पराओं और विरासत का स्वाभिमान रहना चाहिए। ये सब बातें राष्ट्रीय हित की अवधारणा का अंग है।

Sunday 24 August, 2008

अब घटना की निंदा से नहीं चलने वाला है काम : मृत्युंजय दीक्षित

देश में परमाणु करार की आड़ में जिस प्रकार की राजनैतिक अस्थिरता व्याप्त हुई उसका लाभ उठाकर आतंकवादियों ने संचार प्रौद्योगिकी शहर बंगलुरू व गुजरात की राजधानी अहमदाबाद को अपना निशाना बनाकर जहां एक ओर अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई वहीं अब वे धमकियों के सहारे यह भी तब रहे हैं कि वे अब देश के किसी भी हिस्से में, किसी भी शहर में, प्रमुख स्थल व भीड़-भाड़ वाले इलाके को अपना निशाना बनाने में कामयाब हो सकते हैं। अब आतंकवादियों की पहुंच लगभग पूरे देश में हो चुकी है।

संप्रग सरकार के कार्यकाल में आतंकवाद का दायरा बेहद विस्तृत व भयावह होता जा रहा है। देश की जनता में भय व असुरक्षा का वातावरण व्याप्त हो गया है। बंगलुरू व अहमदाबाद में हुए बम धमाकों के बाद दिल्ली से लेकर चेन्नई तक, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश के कई शहरों उत्तरप्रदेश के सभी प्रमुख स्थलों व शहरों में धमाके करने की धमकी आतंकवादी ई-मेल के द्वारा दे रहे हैं। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में धमाके, धमकी आतंकवाद व आतंकवादी दहशतगर्दी जैसे शब्द दिनभर बोले जा रहे हैं। मुस्लिम आतंकवाद के साये में पूरा देश आ गया है वहीं नक्सलवाद तथा पूर्वोत्तर के आतंकवाद की समस्या भी देश की आंतरिक सुरक्षा को बड़ी चुनौती प्रस्तुत कर रहा है। हर आतंकवादी घटना के बाद केन्द्रीय गृहमंत्री रटा-रटाया बयान देते रहते हैं। प्रधानमंत्री, केन्द्रीय मंत्री राजनैतिक दलों के नेतागण केवल घटनास्थल का दौरा करके अपनेर् कत्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं। ताजा धमाकों ने सरकारी तंत्र की नाकामी, सुरक्षा व्यवस्था व खुफिया विफलता को उजागर किया हे। हर धमाकों के बाद लश्करे तैयबा, जैश ए मोहम्मद, सिमी व नये आतंकी संगठन इण्डियन मुजाहिदीन का नाम देश के विभिन्न समाचार चैनलों में उछलता है लेकिन अब तक जितने भी धमाके हुए हैं उन्हें अंजाम देने वाले अभियुक्तों व साजिशों का षड़यंत्र करने वाले लोगों तक पहुंचने में देश की खुफिया सएजेंसियां पूरी तरह से नाकाम रही हैं।

न्यायिक व्यवस्था इतनी लचर है कि वर्ष 1992 में मुंबई में हुए बम धमाकों के दोषियों को सजा अभी तक नहीं हो पाई है, संसद भवन पर हमले के आरोपी मोहम्मद अफजल को फांसी की सजा राजनैतिक कारणों से अभी तक नहीं हो पा रही हें। देश की विभिन्न जेलों में अनेक ऐसे खूंखार आतंकवादी बंद पड़े हैं जिन पर प्रारंभिक मुकदमा भी ठीक से प्रारंभ नहीं हो सका है। देश में मुस्लिम आतंकवाद की बढ़ोत्तरी का एक प्रमुख कारण लचर न्यायिक व्यवस्था व राजनैतिक अस्थिरता भी हैं। समाजवादी पार्टी के नेतागण मुस्लिम वोट बैंक के लालच में जामा मस्जिद में बैठक करते हैं व प्रतिबंधित आतंकवादी संगठन सिमी का पूरा पक्ष लेते हैं। केंद्रीय गृहमंत्री घटनाओं के बाद संघीय जांच एजेंसी बनाने की वकालत करते हैं। प्रधानमंत्री बैठकों में व्यस्त हो जाते हैं। वहीं विपक्ष के नेता पोटा कानून की जोरदार वकालत करने लगते हैं। लेकिन धीरे-धीरे फिर पूर्व की भांति सब कछ सामान्य जाता है।

बंगलुरु व अहमदाबाद की घटनों के बाद टी।वी. पर अनेक बहसें आयीं तथा उसमें देश की महत्वपूर्ण हस्तियों ने अपने विचार रखे। एक टी.वी. कार्यक्रम में कांग्रेसी सांसद सचिन पायलट अपने विचार व्यक्त कर रहे थे कि आतंकवाद को जड़ से मिटाने के लिए प्रत्येक राजनैतिक विचारधारा के लोगों को अपनी विचारधारा से ऊपर उठक राष्ट्रहित में समान रूप से सोचना होगा। यह तो वही बात हुई की सूप बोले तो, चलनी क्या बोले जिसमें 72 छेद। हां, एक अधिकारी अवश्य कुछ दमदार विचार रख रहे थे कि आतंकवादी केवल आतंकवादी होता है उसका अपना एक मिशन होता है। आतंकवादियों को किसी भी प्रकार की कानूनी व मानवाधिकारी का हक नहीं होना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि जम्मू कश्मीर के आतंकवादियों को राष्ट्र की मुख्यधारा में शामिल करने के लिए उनके परिवारों को जो आर्थिक सहायता प्रदान की जा रही है वह पूरी तरह से गलत है। इन सबसे आतंकवादी राष्ट्र की मुख्यधारा में तो नहीं शामिल हो रहे हैं लेकिन उनको प्रोत्साहन अवश्य मिल रहा है।

यह बात सही है कि आतंकवादी, आतंकवादी है। उसको किसी भी प्रकार का संरक्षण राष्ट्र विरोधी है। अब समय आ गया है कि सर्वसम्मति से आतंकवाद के खिलाफ निर्णायक लड़ाई छेड़ी जाये। आतंकवाद के चलते विकास की प्रक्रिया अवरूध्द हो रही है। पर्यटन पर विपरीत असर पड़ रहा है। भारत की छवि एक बेहद कमजोर, दिशाहीन, बेचारे राष्ट्र के रूप में उभर रही है। जो राष्ट्र स्वयं की रक्षा के लिए कड़े कदम उठाता हैउसके साथ संपूर्ण विश्व देता है। जब तक हम स्वयं साहसिक कदम नहीं उठाएंगे, तब तक हम पर हमले होते रहेंगे और हम निन्दा स्तुति करते रहेंगे। (नवोत्थान लेख सेवा हिन्दुस्थान समाचार)

यह आतंकवादी हिंसा थमेगी कि नहीं - हरिकृष्ण निगम

स्‍वतंत्रता प्राप्त होने के बाद दशकों में शायद यह पहला दौर होगा जब हमारा देश महसूस कर रहा है कि शासन-तंत्र से आतंक की चपेट से उबरने की उम्मीद करना मूर्खता है। देश लगातार इस अन्दरूनी हमले को झेल रहा है, एक साधारण व्यक्ति भी भय और निराशा भरे वक्तव्य दे रहा है और स्पष्ट कह रहा है कि यदि इस मुद्दे पर अमेरिका जैसे मनोबल को हम नहीं दिखा पाएंगे तो राजनीतिक प्रपंचों से भरा राजनीतिक ढोंग हमें और प्रजातांत्रिक ढांचे को जल्दी ही निगल जाएगा। हम कितना ही ऊपरी दिखावा करें हिंसा और दहशत के हिमायतियों ने सामाजिक समरसता को तार-तार करने की कोशिश की है। हम एक बुनियादी अंतर्विरोध का सामना फिर कर रहे हैं जहाँ संविधान को न मानने वाले हिंसा, घृणा, दहशत और निर्बोध लोगों का संहार करने वालों को हमारे मीडिया का एक बड़ा वर्ग उनके शिकार हुए लोगों की अपेक्षा अधिक महत्व देता है। इस अनुत्तरदायी आचरण के लिए साक्ष्यों की जरूरत नहीं, यह लापरवाही और अराजकता, बौध्दिक विमर्श के चालू जन-संपर्कवाद, वृन्दवादन या आर्कस्ट्रेशन में लगभग प्रतिदिन अभिव्यक्त होता है। भूल जाइए कि आज की परिस्थिति में आतंकवाद के राक्षस पर नकेल लगाया जा सकता है। अनेक राजनीति के विश्लेषक इसे असुरक्षित, मनोबल हीन 'पिलपिला' राष्ट्र भी कहने लगे हैं जहाँ पिछले कई दशकों में मात्र निर्बोध जनता ही आतंकवादियों का निशाना बनी है, सुरक्षा-व्यूह में रहने वाले नेता नहीं।

अभी तक हर हादसे के तुरन्त बाद पाकिस्तानी जेहादी संगठनों के हाथ की चर्चा कर हमारे समाचार पत्र बहुधा देश के भीतर पनपते आतंकवादियों होमग्रोन टेरेरिस्टों-के अस्तित्वों को भी नकारते आए थे पर शायद पहली बार 'टाइम्स ऑफ इण्डिया' ने गुजरात के हादसे के तुरन्त बाद 7 जुलाई 2008 को एक अग्रलेख में स्वीकार किया कि जिहादियों का भारतीयकरण हो चुका है। अभी तक लगता है इस कड़वे सच को वे मानने में भी झिझकतेथे। एक साधारण नागरिक को वैश्विक आतंकवाद के नेटवर्क पर व्याख्याओं से कोई मतलब नहीं है। उसे तो सिर्फ अपनी जान की चिन्ता है जिसे भाषणाजी या संपादकीय सलाह नहीं सुलझा सकती । क्या आज बिना किसी कड़ी या दुस्साहस भरी सुनियोजित पहल क हम इस खतरे से उबर सकते हैं? क्या प्रभावित राज्यों या केन्द्रीय सरकार की रटी रटाई प्रतिक्रियायें हमें आश्वस्त कर सकती हैं? क्या अपराधियों को सजा दिलाने में वर्षों लगाने से ऐसे भयावह हादसों में भी हमने अपनी न्याय प्रक्रिया का स्वयं मखौल कर सकती है? हमारी सुरक्षा और जांच एजेन्सियों की अक्षमता से हर नागरिक परिचित हो चुका है और यह बार-बार सिध्द हो रहा है कि आतंकवाद विरोधी अभियान की असली प्रकृति की समझ भी हमें नहीं है। उनकी गतिविधियों, कार्यप्रणाली, प्रावधानों और मानवाधिकार के नाम पर प्रपंचों का फायदा मात्र आतंकवादी बखूबी से उठाते हैं। एक अक्षमता व असफलता से झूलते हुए हमउस निष्क्रियता के दौर में पहुंच जाते हैं जहाँ पर किसी हादसे की पुनरावृत्ति पर हम नये सिरे से आदर्शवादी वक्तव्यों व भाषणों के गोरखधंधे में अपने को फंसा लेते हैं।

सभी को अज्ञात से डर लगता है; अगले मोड़ में छिपे अदृश्य शत्रु की आहट उसे सुनाई पड़ती है। मात्र वक्तव्यों से उसकी विवशता की सरहदें टूटती रहेंगी। वह सुझाव भी देने की स्थिति में है पर हो सकता है उनमें से कुछ आज के विषाक्त राजनीतिक माहौल में सही न लगती हों। उसकी स्पष्टता व निजी ईमानदारी फिर भी उसक आक्रोश में झलकती हैं। ऐसे ही कुछ सुझावों का संकलन निम्न पंक्तियों ने प्रस्तुत हैं।

जांच के लिए गुप्त कैमराओं का सार्वजनिक स्थलों पर अधिकाधिक प्रयोग के साथ-साथ न्यायालयिक कार्यशालाओं-फोरेन्सिक लैब की संख्या व गुणवत्ता भी बढ़ाई जाए जिससे साक्ष्यों की विश्वसनियता के अभाव में गंभीर आरोपी कानून की गिरफ्त से न बच पाएं, जैसा आज कल बहुधा होता है।
केन्द्रीय स्तर पर वाहनों के दुरूपयोग करने वालों को कानूनी पकड़ में लाने के लिए एक 'डेटाबेस' संकलित करना, आतंकवादियों की सतर्कता से जांच करने के लिए आवश्यक है। छोटे-छोटे रेस्टारेन्टों के मालिकों, क्लबों को चलाने वाले, दुकानदारों को, या विस्फोटकों के निर्माण में प्रयुक्त सामान का व्यापार करने वाले अथवा साइबर कैफे से जुड़े लोगों को समय-समय पर अवांछित काम में लिप्त लोगों की सूचना देने के लिए प्रेरित किया जाए। हर नागरिक के लिए एक समान राष्ट्रीय परिचय पत्र जारी किया जाए जो वोटर या दूसरे कार्डों से अलग हो। सीमा क्षेत्रों में इसे विशेषकर अनिवार्य बनाया जाए। आतंकवाद से जूझने के लिए सन् 2002 में बनाए 'पोटा' या उसके जैसे कानून बना कर हर नागरिक को स्पष्ट संकेत दिया जाए कि राष्ट्रद्रोह या हिंसा की नीतियों को सरकार समान रूप से कुचलने को कटिबध्द हैं।

एक सर्वोच्च राष्ट्रीय सुरक्षा संगठन सिर्फ आतंकवाद से निपटने के लिए केन्द्रीय स्तर की एजेन्सी के रूप में बनाया जाए जिसमें विशेषज्ञ हो, सैन्यबल हों, पूर्व सेनाधिकारी हों और राजनीतिक प्रभाव डालने वालों को बाहर रखा जाए। इन्टरपोल की तरह संदेह के घेरे में आए आरोपियों व दण्डित अधिकारियों और अपराधियों की केन्द्रीय नेटवर्क द्वारा सूचना उपलब्ध कराने की प्रणाली का विकास किया जाए। केन्द्रीय जांच ब्यूरो को आतंक से जुड़े हर प्रकरण सौंपे जाएं और उनका अधिकार क्षेत्र भी बढ़ाया जाए। निष्पक्ष, स्वतंत्र और सक्षम खुफिया तंत्र सरकार बनने, बिगड़ने या बदले से अप्रभावित रहे और वह मात्र अपने स्वयं के गठित चार्टर के लिए उत्तरदायी रहें।

चाहे विपक्ष हो या सत्तादल के राजनीतिबाज या मीडिया के स्वयंभू कर्णधार यदि वे न्यायिक या जांच प्रक्रिया को बरगलाने की कोशिश करते हैं या किसी भी बहाने भी आतंकवाद को समर्थन देते हैं उनकी भी बारीकी से जांच होनी चाहिए। इसी तरह न्याय प्रक्रिया में मानवाधिकार व गैरसरकारी संगठनों के आवश्कयता से अधिक रूचि लेने के मूल कारणों की जांच में राजनीतिक हस्तक्षेप की खुलकर भर्त्सना होनी चाहिए।

आतंकवाद के प्रच्छन्न समर्थकों के रूप में उन समाजकर्मियों एवं पत्रकारों पर निगरानी करना चाहिए जो उनसे व उनके परिवार पर नियमित रूप से सहानुभूति जताते हैं। इसी तरह आतंकवादी घटनाक्रम की जांच में कानूनी प्रक्रिया में तेजी लाई जाए। उसे वर्षों तक लटकाने व चलाने वालों पर भी प्रश्न चिन्ह लगाना अपेक्षित है। न्याय में देर करना न्याय न देने के बराबर है। या तो अपराधी को तुरन्त दण्डित किया जाए अथवा अपराध न सिध्द होने पर उसे छोड़ दिया जाए यह निष्पक्ष प्रक्रिया का तकाजा है।
पुलिस और जांच एजेन्सियों को आरोपियों से पूछताछ करने में पूरी स्वतंत्रता दी जाए। 'ट्रायल बाई मीडिया'-विशेषकर दृश्य मीडिया की निर्णय पहुंचने की जल्दबाजी देश के लिए घातक सिध्द हो रही है।
संविधान को न मानने वाले या हिंसा में विश्वास करने वालों को न्यायिक प्रक्रिया की बारीकियों के बहाने या मानवाधिकार के नाम पर कोई छूट न दी जाए। राजनीतिक दलों के किसी भी वर्ग के तुष्टीकरण के एजेन्डा का पर्दाफाश भी अपेक्षित है। सारे अपराधी बिना झिझक के एक ही पलड़े में तौले जाएं।
मानवाधिकार हनन के सतहे आरोप या दुष्प्रचार के बल पर पुलिस अधिकारियों को दण्डित करना बंद किया जाए। किसी मंत्री के दबाव में नहीं बल्कि वैध जांच प्रक्रिया के बाद में प्राकृतिक न्याय देते हुए, यदि आरोप सिध्द होते है तभी दण्ड दिया जाए। पुलिस के मनोबल को गिराने वाले समाचारों की तरह में भी पहुंचना जरूरी है। भारत पाक शान्तिवार्ता के उत्साही समर्थकों पर भी कड़ी नजर रखना जरूरी हैं क्योंकि वे हर आतंकवादी हमले का उद्देश्य मात्र इस प्रक्रिया को हानि पहुंचना ही कहते हैं। उन्हें नरसंहार और खून खराबे के पीछे बस यही लक्ष्य दिखता है।

देश का हर कोना आज असुरक्षित ही नहीं जैसे किसी अनहोनी का इन्तजार कर रहा है। बंगलौर के हादसे के मात्र एक दिन बाद अहमदाबाद के विस्फोटों की श्रृंखला ने सिध्द कर दिया है कि आतंकवादी अपनी इच्छानुसार हमें जहां चाहें निशाना बना सकते है।ं चाहे मुम्बई ओ या वाराणसी, जयपुर हो या मालेगांव अथवा नागपुर अब तक हमारा बड्बोलापन हमारे प्रजातंत्र का सिर्फ मखौल उड़ाता रहा है। क्या यह शर्मनाक नहीं हैं जब देश के सबसे बड़े अंग्रेजी दैनिक कहलाने वालों ने अपने मुखपृष्ठ पर 6-कालम शीर्षक में लिखा यह हादसा 'मौदीलैण्ड' गुजरात में हुआ शायद मुख्यमंत्री को उसकी करनी पर सबक सिखाया गया है। निर्बोध जनता की इस त्रासदी के क्षण में भी यदि हमारा प्रबुध्द वर्ग अपनी घृणा न छिपा पाए तो देश कहां जा चुका है, हम समझ सकते हैं । यह भी लिखा गया है कि क्योंकि कर्नाटक और गुजरात दोनों भाजपा शासित प्रदेश हैं इसलिए अगला निशाना मध्यप्रदेश भी हो सकता है । कुछ पत्रकार यह भी कह रहे हैं शायद यह घटनाक्रम गुजरात में होना ही था। यह वहां के वर्षों पहले के दंगों का बदला हैं।

आज स्पष्ट है कि राष्ट्रविरोधी, सशक्त यद्यपि दिग्भ्रमित मीडिया के एक वर्ग ने आतंकवाद के दौर में एक नई पेंचीदगी को जन्म दिया है । इस नए शत्रु की पहचान और उससे निपटना एक नई मजबूरी है। फिलहाल स गंभीर मुद्दे पर हमारी नीतियाँ अपने ही पैरों के घाव चाट रही हैं। एक साधारण, सामान्य व्यक्ति के वर्तमान अविश्वास के कारण जल्दी दूर नहीं होने के। (नवोत्थान लेख सेवा हिन्दुस्थान समाचार)

Saturday 23 August, 2008

श्री‍अमरनाथ श्राईन बोर्ड की स्थापना, भूमिका और कार्य

1996 में विहिप के आह्वान पर पूरे देश से लगभग 50,000 यात्री अमरनाथ यात्रा के लिए आए। यात्रा में अनेक अड़चनें थीं। जिनमें से मुख्य यह थी कि पंजीकरण अपने राज्य की राजधानी में ही करवाना होगा। जम्मू में पंजीकरण की कोई व्यवस्था नहीं थी। यहां पर आने वाले तीर्थ यात्रियों के लिए किसी भी तरह की कोई व्यवस्था नहीं थी। 1996 में ही एक भयंकर बर्फानी तूफान अमरनाथ यात्रा के रास्तों पर आया। इस तूफान की लपेट में आकर तीन सौ से ज्यादा श्रध्दालु मारे गये। यात्रियों के मरने का मुख्य कारण तो प्राकृतिक आपदा ही थी। परन्तु इस तूफान ने राज्य सरकार के द्वारा किये गये लचर प्रबंधों की पोल भी खोल दी। यात्रा भवनों, विश्राम स्थलों इत्यादि स्थानों पर खाने पीने और ठहरने की सब व्यवस्थाएं चरमरा गई। देश भर में विश्‍व हिन्दू परिषद समेत कईं हिन्दू संगठनों ने प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुये सरकार से पूरी जांच पड़ताल करके किसी कमेटी के गठन की मांग की। परिणामस्वरूप सरकार हरकत में आई और नीतिश सेन कमेटी का गठन हुआ।

इस कमेटी ने निम्नलिखित सुझाव दिये-
(1) यात्रा मार्ग को चौडा किया जाये।

(2) यात्रा की समयावधि बढ़ाई जाये,

(3) प्रतिदिन यात्रियों की निर्धारित संख्या निश्चित की जाये,

(4) यात्रा मार्ग में अस्थाई आवास बनाये जायें। विश्‍व हिन्दू परिषद ने नीतिश सेन कमेटी के सुझावों का अध्ययन किया। कमेटी के सभी सुझावों के साथ-साथ यात्रा को सुचारू रूप से चलाने के लिए माता वैष्‍णो श्राईन बोर्ड की तरह ही एक बोर्ड बनाने का सुझाव दिया।

सरकार ने इस सुझाव को मानते हुये वर्ष 2000 में विधानसभा में बनाये गये एक विशेष एक्ट के द्वारा श्रीअमरनाथ श्राईन बोर्ड का गठन किया। इस एक्ट के अनुसार प्रदेश के महामहिम राज्यपाल अमरनाथ श्राईन बोर्ड के अध्‍यक्ष होंगे। अगर राज्यपाल हिन्दू नहीं है तो उनकी जगह राज्य के किसी प्रसिध्द धार्मिक हिन्दू व्यक्ति को अध्‍यक्ष के नाते नियुक्त किया जायेगा। दो सामाजिक महिलाओं सहित प्रदेश के दस हिन्दू श्राईन बोर्ड के सदस्य होंगे। यात्रा की व्यवस्था व पूजा अर्चना करने का अधिकार इस तरह श्राईन बोर्ड को मिल गया। तब से श्राईन बोर्ड अपने इस कार्य को बेहतर ढंग से निपटाता चला आ रहा था।

श्राईन बोर्ड ने पिछले आठ वर्षों में यात्रियों की सुविधाओं के लिए अनेक कार्य किये। यथा:

(1) यात्रियों का पंजीकरण पूरे भारत में जम्मू-कश्‍मीर बैंक की शाखाओं में शुरू हो गया।
(2) जम्मू में भी तत्काल पंजीकरण की व्यवस्था की गई।

(3।) यात्रा का आधार शिविर परेड ग्राउंड जैसे छोटे और असुरक्षित मैदान से हटाकर एम।ए। स्टेडियम के खुले एवं सुरक्षित मैदान में कर दिया गया। इसी प्रकार की व्यवस्था जम्मू के भगवती नगर में भी सब सुविधाओं के साथ की गई।

(4) वर्ष 2005 में यात्रा की अवधि एक महीने से बढ़ाकर दो महीने कर दी गई।

(5) सार्वजनिक लंगरों के लिए अनुमति दी गई और इनके प्रबंधकों को पूरी सुविधाएं दी गई।

(6) यात्रा मार्ग पर दी गईं सभी आधुनिक सुविधाओं को प्रदूषण मुक्त करने के लिए अत्याधुनिक वैज्ञानिक उपकरणों की व्यवस्था की गई।

( 7) बालटाल से पवित्र गुफा तक हवाई मार्ग का प्रबंध भी किया गया। श्री अमरनाथ श्राईन बोर्ड के द्वारा सम्पन्न कुशल प्रबंधान से वर्ष 1999 में यात्रा की संख्या 11 हजार से बढ़कर वर्ष 2007 में 8 लाख तक पहुंच गई।

भूमि आवंटन आदेश जारी 26-5-2008
विषय : वन विभाग की 39।88 हैक्टेयर भूमि जो श्री अमरनाथ श्राईन बोर्ड को बालटाल और दोमेल में ढांचा खड़ा करने के लिए ''सिंध वन विभाग'' में दी गई है।

उल्लेख :- मंत्रि‍मंडल के निर्णय क्रमांक 94 दिनांक 20-5-2008 राज्य आदेश नं। 184 एफ।एस।टी। ऑफ 2008 दिनांक 26-5-2008, 39.88 हैक्टेयर वन भूमि जो कि कम्पार्टमैण्ट नं. 638 सिंध ब्लाक और कालान रेंज सिंध में पड़ती है का आवंटन किया गया। यह भूमि बालटाल और दोमेल में बने-बनाए ढांचे खड़े करने के लिए श्राईन बोर्ड को दी गई ताकि इसका उपयोग यात्रियों के अस्थायी निवास के लिए हो सके।

निम्नलिखित शर्तों पर यह भूमि आवंटन की गई-
1. इस भूमि के ऊपर मालिकाना अधिकार नहीं बदलेगा।
2. आवंटित वन भूमि का उपयोग केवल उसी मकसद के लिए किया जाएगा जिसके लिए आवंटित है। वन विभाग की आज्ञा के बिना यह भूमि किसी दूसरी संस्था को नहीं दी जा सकती।
3. यह वन भूमि किसी के पास न तो गिरवी और न ही पट्टे पर दी जाएगी।
4. उपयोग में लाने वाली संस्था 2,31,30,400.00 रूपये जैसा कि संबंधित डी.एफ.ओ. ने इसकी कीमत सुप्रीम कोर्ट के 30-10-2002 के आदेश के अनुसार लगाई है, अदा करेगी। ( 1 A No. 566 writ petition civil No. 2002, 1995 T.S.R. गोडे वर्मन शुरूमलपाद बनाम भारत संघ)
5. उपयोग में लाने वाली संस्था 19 लाख 94 हजार रूपये 39.88 हैक्टेयर भूमि के मुआवजे के तौर पर अदा करे।
6. उपयोग में लेने वाली संस्था ऐसे कदम उठाएगी वैज्ञानिक माध्यमों से जिससे साथ बहने वाले सिंध नाले का जल प्रदूषित नहीं होगा।
7. किसी प्रकार का नुकसान जो वन भूमि को उपयोग करने वाली संस्था, कर्मचारी, ठेकेदार या मजदूरों के द्वारा होगा उसका 10 गुणा संस्था से वसूला जायेगा।
8. जब इस वन भूमि का उपयोग करने वाली संस्था को इसकी आवश्‍यकता नहीं रहेगी तो यह भूमि स्वत: ही वन विभाग की हो जाएगी बिना किसी मुआवजे के।
9. उपयोग करने वाली संस्था इसके दोनों किनारों पर Retaining Forest Wall का निर्माण करेगी और ऐसे दूसरे साधन अपनाएगी जिससे इस धरती में भूमि कटाव न हो।
उपयोग करने वाली संस्था Director soil conservation जम्मू से तकनीकी सलाह लेगी।
10. उपयोग करने वाली संस्था इस विषय के संबंधित विभागों से कानूनी इजाजत लेगी।
11. उपयोग करने वाली संस्था यह लिखकर देगी कि अगर जमीन के दाम बढ़ेंगे तो वह अतिरिक्त राशि वन विभाग को देगी।
12. सभी देनदारी जिसमें संस्था ने वन विभाग को करनी है संबंधित विभागों को नहीं कर देती है जिनमें वृक्ष कटने का हर्जाना, एन.पी.वी, जमीन का हर्जाना, मुख्य लेखाधिकारी के पास जमा न कराएं तब तक भूमि पर उपरोक्त संस्था का कब्जा नहीं होगा। इस बात का भी आष्वस्त करना होगा कि और किसी भी तरह का बकाया इस संस्था को भरना होगा।
13. संस्था को राज्य पर्यावरण बोर्ड के नियमों के अनुसार वह सब संभव सुरक्षात्मक कदम उठाने होंगे और उसके बाद ही संस्था को पूर्व निर्मित ढांचे यात्रियों के उपयोग के लिए खड़े करने होंगे।
12-7-2007 को मुख्य सचिव की अध्यक्षता में 39वीं बैठक के अंदर सलाहकार समिति ने इस प्रस्ताव को पारित किया है।

जम्मू-कश्‍मीर सरकार के आदेशनुसार
प्रधान सचिव, वन विभाग
नोट : श्रीअमरनाथ श्राईन बोर्ड ने उपरोक्त सभी शर्तें स्वीकार कर ली थीं।
भूमि आबंटन आदेश निरस्त 1-7-2008
सरकारी आदेश क्रमांक -184, एफ.एस.टी. ऑफ 2008 तिथि 26-05-2008 जिसके अनुसार 39.88 हैक्टेयर भूमि जो कि श्रीअमरनाथ श्राईन बोर्ड को बालटाल और दोमेल में आवंटित की गई थी, को रद्द किया गया। जम्मू-कश्मीर राज्य सरकार के आदेश से।
कमीशनर सैक्रेटरी
राज्य वन विभाग, भूमि आबंटन का आदेश

Friday 22 August, 2008

जम्मू प्रांत के लोग भारत की लड़ाई लड़ रहे है : डा0 कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

जम्मू प्रांत में लोगों का गुस्सा शांत होने को नहीं आ रहा। सोनिया गांधी की सरकार ने वहां सेना भी तैनात कर दी है और सेना ने शहर के सभी नाकों को सील कर दिया है। परन्तु जम्मू प्रांत के लोग उफनती हुई तवी नदी को तैर करके भी जम्मू पहुंच रहे हैं। पुंछ, उधमपुर, रियासी, डोडा और कठुआ सभी शहरों में लोग स्वत: ही सरकार के विरोध में निकले हुए हैं। दिल्ली में बैठे शतुरमुर्गी सेकुलरिस्ट गला फाड-फाडकर चिल्ला रहे हैं। जम्मू प्रांत में हिन्दू मुसलमानों के खिलाफ हो रहे हैं। लेकिन जम्मू के पहाड़ों पर जम्मू की घाटियों में जम्मू की सड़कों पर जम्मू प्रांत के सभी हिन्दू और मुसलमान इकट्ठे होकर राज्यपाल एन0एन0बोहरा को बर्खास्त करने और बाबा अमरनाथ धाम को दी गई जमीन बहाल करने के नारे लगाते हैं तो दिल्ली में मुसलमानों की राजनीति करने वाले सेकुलरवादियों का मुँह पिचक जाता है। ऐसे पिचके हुए गालों वाले राजनीतिज्ञों का एक 'कट्ठ' पिछले दिनों दिल्ली में हुआ था। स्वर सभी का एक ही था कि जम्मू के लोगों को लगाम लगाई जाए क्योंकि इससे कश्मीर का मुसलमान नाराज होता है। कश्मीर का मुसलमान नाराज होता है या नहीं होता यह तथ्य और बहस का विषय हो सकता है। लेकिन कश्मीर में आतंकवादी गिरोह, हुर्रियत कांफ्रेस, लश्कर-ए-तौयबा, दुख तराने मिल्लत, मुफ्ती मोहम्मद सैय्यद और मेहबूबा मु्फ्ती (बाप-बेटी की यह जोड़ी), शेख अब्दुल्ला के वारिस और गुलाम नबी आजाद के आका जरूर नाराज होते हैं। बहुत मुमकिन है पाकिस्तान भी नाराज होता हो। कश्मीर घाटी में प्रदर्शन भी हो रहे हैं और जम्मू प्रांत में भी प्रदर्शन हो रहे हैं दोनों प्रदर्शनों में एक ही अंतर है। घाटी में प्रदर्शनकारियों के हाथ में पाकिस्तान का झंडा है और मुँह पर पाकिस्तान जिंदाबाद का नारा है और जहां तक भारतीय सेना का सवाल है उसके लिए इन अलगाववादी आतंकवादी प्रदर्शनकारियों की तनी हुई मुठ्ठियों और क्रुध्द चेहरों से एक ही भाव निकलता है भारतीयों कुत्तों वापिस जाओ। जबकि जम्मू प्रांत में लोगों के हाथ में तिरंगा झंडा है। घोष का स्वर भारत माता की जय है और भारतीय सेना का हाथ हिला-हिलाकर स्वागत करने की परंपरा है। जम्मू के लोग मर रहे हैं लेकिन मरते-मरते भी भारत माता की जय बोल रहे हैं। कश्मीर में तथाकथित राजनैतिक दल और अलगाववादी आतंकवादी समूह (दोनों के बीच का अंतर अब धीरे-धीरे मिटता जा रहा है।) भारत सरकार की मेहमान बाजी का लुत्फ भी उठाते है और घाटी में पाकिस्तान की ओर मुँह करके अपनी आस्था का प्रकटीकरण भी करते हैं।

दिल्ली में बैठकर जो जम्मू कश्मीर के विशेषज्ञ बने हुए है। जिन्हें न डोगरी भाषा आती है, न लद्दाखी भाषा आती है और न ही कश्मीरी भाषा आती है। उनके पास अंग्रेज मालिकों द्वारा सिखाए गए कश्मीर समस्या के समाधान के फार्मूले हैं। वे आज 2008 में भी अपने उन्हीं गोरे महाप्रभुओं के फार्मूले लागू कर रहे हैं। दिल्ली के इन मालिकों को एक साधारण तथ्य समझ नहीं आता कि जम्मू कश्मीर भी भारत का ही हिस्सा है। वह भी उसी प्रकार लोकतांत्रिक व्यवस्था से परिचालित है। जिस प्रकार देश का कोई अन्य प्रांत हरियाणा, पंजाब या गुजरात। लेकिन पं0 नेहरू खुद कश्मीरी थे और उनके मित्र शेख अब्दुल्ला तो अपने आपको शेर-ए-कश्मीर कहते थे। इन दोनों का शायद यह मानना था कि राज्य में कश्मीरियों की जनसंख्या चाहे थोड़ी है लेकिन व्यवस्था ऐसी करनी चाहिए कि लोकतंत्र का पर्दा भी बना रहे और राज केवल कश्मीरियों का ही सुनिश्चित कर दिया जाए। इसीलिए कश्मीर प्रांत में कम जनसंख्या होते हुए भी विधानसभा की ज्यादा सीटें हैं। और कश्मीर प्रांत में ज्यादा जनसंख्या होते हुए भी विधानसभा की सीटें कम है। अभी देशभर में सभी राज्यों की विधानसभाओं के लिए पुन: परिसीमन हुआ ताकि विधानसभा की सीटों का निर्धारण जनसंख्या के आधार पर किया जा सके। लेकिन भारत सरकार ने अलगाववादियों और आतंकवादियों की मांग के आगे झुकते हुए जम्मू कश्मीर में विधानसभा की सीटों का परिसीमन नहीं किया। क्योंकि यदि परिसीमन हो जाता तो राज्य पर अल्पसंख्यक कश्मीरियों का प्रभुत्व समाप्त हो जाता।

दरअसल जम्मू कश्मीर में यह लड़ाई लोकतंत्र की लड़ाई है। पिछले छ: दशकों से जम्मू प्रांत के लोगों के भीतर जमा हुआ लावा ज्वालामुखी बनकर फटा है। अमरनाथ धाम को दी गई जमीन तो एक माध्यम बना है वास्तव में यह 60 सालों से जम्मू प्रांत के साथ हो रहे अन्याय के खिलाफ युध्द है। यह लड़ाई कश्मीरियों के खिलाफ भी नहीं है। बल्कि यह लड़ाई उन अलगाववादी और आतंकवादी के खिलाफ है जिन्होंने कुछ अंतर्राष्ट्रीय शक्तियों के बल पर भारत को बंधक बनाकर रखा है। अजीब संयोग है जो लड़ाई भारत सरकार को लड़नी चाहिए थी वह लड़ाई जम्मू प्रांत के लोग लड़ रहे है और भारत सरकार की पुलिस उन पर गोलियां चला रही है। उमर अब्दुल्ला एक इंच भी जमीन नहीं देने की बात कह रहे हैं और कुछ टीवी चैनल उनके इस भाषण को सर्वश्रेष्ठ घोषित कर रहे हैं लेकिन उमर शायद यह नहीं जानते कि उनकी उम्र के हजारों को गुणा से भी अधिक पुराना बाबा अमरनाथ का धाम है । कश्मीर बाबा अमरनाथ का है कश्मीर नन्द ऋषि का है कश्मीर ललेश्वरी का है। कश्मीर उन सूफी संतों का है जो कश्मीर की घाटियों में प्रेम के गीत गुंजाते थे ये कश्मीर अब्दुल्लाओं का नहीं है और न ही गिलानियों का है और न ही सैय्यदों का है। कुछ अंग्रेजी का अखबार और उसी प्रकार के विद्वान जम्मू प्रांत के लोगों का घुड़का रहे हैं कि उनके इस आंदोलन से कश्मीर में प्रतिक्रिया हो सकती है। लेकिन वे ये बात भूल जाते हैं कि जम्मू में जो हो रहा है वह दरअसल कश्मीर में हो रही अलगावादी घटनाओं की प्रतिक्रिया ही है। ऐसे मौके पर अकलमंद इंसान तो इस प्रकार की विषैली क्रिया को रोकने की कोशिश करता है ताकि प्रतिक्रिया न हो किंतु दुर्भाग्य से यह तथाकथित विशेषज्ञ क्रिया करने वालों को तो रोक नहीं सकते या उनके आगे अपना नपुंसकतावादी दर्शन बांचते हैं। इनकी सारी विद्वता जम्मू में हो रही प्रतिक्रिया दबाने में खर्च हो रही है। गुजरात में जब कभी कुछ होता है तो यही विद्वान चिल्लाते हैं कि इनमें आतंकवादियों का दोष है क्योंकि यह आतंकवादी घटनाएं तो गोधरा काण्ड के दंगों की प्रतिक्रिया है। लेकिन वही विद्वान जम्मू को श्रीनगर में जो कुछ हो रहा है उसकी प्रतिक्रिया नहीं मानते और यदि मान भी रहे हैं तो दोष प्रतिक्रिया करने वाले पर ही थोप रहे हैं। कुछ तथाकथित कश्मीर विशेषज्ञ तो घबराकर इससे भी आगे चले गए। उन्होंने यह रोना शुरू कर दिया कि यह सारा पंगा ही पूर्व राज्यपाल एस.के. सिन्हा का खड़ा किया हुआ है। न सिन्हा अमरनाथधाम को जमीन देते और न ही यह सारा विवाद शुरू होता । इनको शायद यह नहीं पता कि कश्मीर में पिछले 30 सालों से जो हो रहा है। उसका अमरनाथ से कोई लेना देना नहीं है। अमरनाथधाम को दी गई जमीन तो एक बहाना है। असली निशाना कहां है? इसका खुलासा उमर अब्दुल्ला ने किया है। जम्मू प्रांत के लोग भारत की लड़ाई लड़ रहे हैं उनकी पीठ थपथपाने की जरूरत है न कि पीठ में गोली मारने की।
(नवोत्थान लेख सेवा हिन्दुस्थान समाचार)

सिमी के माध्यम से आतंकवाद का राजनीतिकरण

लेखक- रवीन्द्र मोहन यादव

सिमी (स्टूडेन्ट इस्लामिक मूवमेन्ट ऑफ इण्डिया) जिसके मार्गदर्शक हैं ओसामा बिन लादेन, भारत को दारूल हरब से दारूल इस्लाम में परिवर्तित करने के प्रमुख उद्देश्य हेतु दरकार है महमूद गजनवी की, उक्त घोषित उद्देश्यों की सार्वजनिक रूप से जानकारी कानपुर में आयोजित सम्मेलन के प्रचार हेतु प्रकाशित पोस्टर के माध्यम से जन सामान्य को हुई। कानपुर सम्मेलन की कार्यवाही एवं पारित प्रस्तावों के माध्यम से जिस प्रकार के विचारों की जानकारी सामने आई तो जन सामान्य के मन में उक्त संगठन के बारे में कट्टरवादी व हिंसक गतिविधियों में विश्वास रखने वाली छवि उभरकर आई। जब उक्त संगठन पर प्रतिबंध लगाने की बात आई तो तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने मोर्चा सम्भालते हुए सिमी को देशभक्तों का संगठन घोषित करते हुए मांग रख दी यदि ऐसा किया जाये तो उससे पहिले आर।एस.एस., बजरंग दल, दुर्गावाहिनी, शिवसेना आदि फिरकापरस्त, साम्प्रदायिक संगठनों पर भी प्रतिबंध लगाया जाये। सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव जिनकी सिमी पर राय आज तक अडिग एवं कायम है, कांग्रेस के साथ आने के पश्चात् भी श्री यादव सिमी को दी गई क्लीन चिट पर कायम रहेंगे, यह देखना है कि केन्द्रीय राजनीति का नया गठजोड़ सिमी के प्रश्न पर किसे प्रभावित करता है।

राष्ट्र विरोधी हिंसक गतिविधियों में सिमी की भागीदारी के पुख्ता सबूतों के अभाव एवं केन्द्रीय गृह मंत्रालय की निष्क्रियता के चलते दिल्ली उच्च न्यायालय के विशेष ट्रिब्यूनल ने सिमी पर लागू प्रतिबन्ध को समाप्त करने का निर्णय सुनाया था। उक्त विषय पर केन्द्रीय गृह मंत्रालय की होती किरकरी व गृहमंत्री के त्यागपत्र की मांग प्रारम्भ होते ही सिमी पर प्रतिबंध लागू रखने का मामला सर्वोच्च न्यायालय में ले जाया गया, जिस पर माननीय न्यायधीशों ने 21 दिन का समय देकर सरकार को पुष्ट प्रमाणों सहित आरोप पत्र प्रस्तुत करने और सिमी को अपने बचाव हेतु पक्ष प्रस्तुत करने का आदेश जारी करते हुए प्रतिबंध को लागू रहने दिया। सिमी के घोषित उद्देश्य और मार्गदर्शक पुख्ता प्रमाण ही पर्याप्त है कि अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवादी सरगना ओसामा बिन लादेन उसका प्रेरणास्रोत है और जिस मोहम्मद गजनवी ने 17 बार हमला करके भारतीयों की आस्था-विश्वास के केन्द्र धार्मिक मन्दिरों को जमकर लूटा ही नहीं वहाँ पर स्थापित मूर्तियों को खण्डित किया और ऐसा न करने देने से रोकने हेतु जो भी आया उसे मौत के घाट उतार दिया। हिंसा के माध्यम से भारत में इस्लाम को प्रभावी बनाने हेतु आज भी जिन्हें महमूद गजनवी की दरकार है उनके साथ वोट की राजनीति करने वाले दल और उनके नेता मुलायम सिंह यादव, रामविलास पासवान, लालू प्रसाद यादव खुलकर सिमी की हिमायत में आकर खड़े हो गऐ हैं।

सिमी पर प्रतिबंध के विषय पर उत्तर प्रदेश एवं बिहार के प्रमुख राजनीतिक दलों के नेता पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव एवं वर्तमान केन्द्रीय रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव ने सिमी के पक्ष में खड़े होकर एक नयी बहस को जाने-अनजाने में प्रारम्भ कराने का अवसर प्रदान कर दिया है, क्या अब आतंकवाद का राजनीतिक संस्करण आने वाला है। सिमी के विषय पर चर्चा से पूर्व संसद में हमले का आरोपी आतंकवादी सरगना व मास्टर माइंड अफजल गुरू को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा फांसी सुनाये एक अरसा व्यतीत हो गया है। राष्ट्रपति के पास जीवनदान वाली क्षमा याचिका के द्वारा फांसी को निलम्बित रखना आतंकवाद को बढ़ावा देने का कारण बनता जा रहा है वहीं अमरनाथ श्राइन बोर्ड को आवंटित भूमि निरस्त करने के पीछे भी कश्मीर घाटी में संकरे अलगाववादी तत्वों के हौंसले बढ़ाने का कारण भी केन्द्रीय सरकार की तुष्टिकरण नीति को स्पष्ट करता है। राजनीतिक स्वार्थ पूर्ति हेतु आखिर कब तक राष्ट्रहितों की बलि चढ़ाई जाती रहेगी यह राष्ट्रभक्तों की चिंता का विषय बनता जा रहा है।

देश में जब-जब आतंकवादी घटना को अंजाम देकर निर्दोषों का रक्त बहाया गया दिल दहला देने वाली घटनाओं के पश्चात् केन्द्रीय सरकार खुफिया संगठनों की रिपोर्ट के आधार पर सीमा पार से प्रेरित देश में कार्यरत आतंकवादी संगठनों के साथ सिमी के लिप्त होने की बात कहते रहे हैं। सिमी के लिप्त रहने के पुख्ता सबूतों के साथ न्यायालयों में चौकस पैरवी का दायित्व सरकार का है यदि सबूत नहीं है तो जनता को भ्रमित करने की कोई आवश्यकता नहीं हैं। आतंकवादी हिंसा की प्रमुख घटनाओं पर ध्यान दें तो याद आती है जुलाई 08 माह में बैंगलोर (कर्नाटक), अहमदाबाद (गुजरात) में 49, 13 मई 08 जयपुर राजस्थान में 63, 25 अगस्त 07 हैदराबाद तीन विस्फोटों में 40, 18 मई 07 बम विस्फोट से 11, 19 फरवरी 07 पाकिस्तान जा रही ट्रेन में दो विस्फोट में 66, 8 सितम्बर 06 माले गांव बम धमाकों में 22, 11 जुलाई 06 मुम्बई लोकल ट्रेन व स्टेशनों पर बम विस्फोट में 180, 7 मार्च 06 वाराणसी संकट मोचन मंदिर सहित तीन स्थानों के बम धमाकों में 15, 29 अक्टूबर 05 दिल्ली तीन बम विस्फोटों में 66, 15 अगस्त 04 असम विस्फोट में 15 स्कूली बच्चे, 25 अगस्त 03 मुम्बई दो कार बम विस्फोट में 60, 13 मार्च 03 मुम्बई ट्रेन धमाकों में 11 जानें चली गयीं।

आतंकवादी घटनाओं में केन्द्रीय सरकार के मंत्रीगण और अधिकारी प्रमुख आतंकवादी संगठनों के साथ ही सिमी को भी दोषी मानते रहे हैं। दिल्ली उच्च न्यायालय के विशेष ट्रिब्यूनल द्वारा सिमी को दोषी न मानने का निर्णय सुनाया है। इसके दो ही प्रमुख कारण बनते हैं, केन्द्रीय सरकार द्वार सिमी के विरूध्द पुख्ता सबूत न होने के बावजूद आरोप लगाना या सिमी का इन आतंकी गविधियों में हाथ नहीं होना। वैसे एक राज की बात यह भी है कि गली-मोहल्लों के गुण्डे पर्याप्त गवाही के अभाव में हत्या जैसे जघन्य अपराध से मुक्त हो जाते हैं। न्याय प्रणाली का सिध्दान्त है कि एक भी निर्दोष नहीं फंसना चाहिए चाहे कितने भी दोषी बच जायें, न्याय तो अंधा है उसे तो सबूत चाहिए दोषी को सिध्द करने के लिए और सबूत जुटाने का कार्य केन्द्रीय सरकार को करना है। उन्हें देश पर शासन करने हेतु एक समुदाय के वोटों को भी प्राप्त करना है। धर्म निरपेक्षता का सिध्दान्त इस तुष्टीकरण की राजनीति को बल प्रदान करता है।

सिमी पर दिल्ली उच्च न्यायालय के ट्रिव्यूनल का निर्णय तब आया जब 7 फरवरी 08 को सिमी पर लागू प्रतिबंध को दो वर्ष तक बढ़ाने का अनुरोध किया गया। अपने अनुरोध के साथ अतिरिक्त सोलिसिटर जनरल गोपाल सुब्रहमण्यम् ने 75 से अधिक खुफिया ब्यूरो के अधिकारी एवं प्रदेशों के डी।जी.पी. की रिपोर्ट को आधार बनाया गया था, प्रस्तुत की थी। सरकार की तरफ से ट्रिव्यूनल को अनुरोध किया गया था कि सिमी राष्ट्र विरोधी गतिविधियों सहित आतंकवादी हमलों में लिप्त रहा है उक्त प्रकरण को गम्भीरता से लेने की आवश्यकता है। मुम्बई लोकल ट्रेन धमाके, बैंगलोर, जयपुर एवं अहमदाबाद में बम विस्फोटों एवं सूरत में मिले जीवित बमों के मामले में सिमी का हाथ होने की पुष्ट सूचनायें हैं जिनके आधार पर सिमी पर प्रतिबन्ध लागू रखना अत्यन्त आवश्यक है।

धर्मनिरपेक्षता के नाम पर पाखण्ड पूर्ण राजनीति ने एक नया आयाम विकसित कर लिया है। अभी तक बाहुबली और अपराध जगत के सरगना नेताओं के तारणहार हुआ करते थे उन्होंने जब स्वयं राजनीति करने का बीड़ा उठाया तो राजनीति का अपराधीकरण बदल कर अपराध का राजनीतिकरण हो गया। अपने साथ है तो हृदय परिवर्तन हो गया है और दूसरे के साथ है तो दुर्दान्त अपराधी है। वही हाल मुस्लिम समाज के मतों को अपने दल के साथ जोड़ने की खातिर सीमाओं का उल्लंघन करते हुए तुष्टीकरण किया जा रहा है। आतंकवादी गतिविधियों में संलिप्त न होने की बात कहते हुए अलगाववादी संगठनों के साथ वोटों के लालची नेतागण हिमायत में खड़े देखे जाते हैं। इस प्रकार लगता है कि आने वाले समय में देश को आतंकवाद के राजनीतिकरण की अवधारणा से रूबरू होना पड़ेगा जो कि राष्ट्र की एकता व अखण्डता के साथ सामाजिक जीवन के ताने-बाने को क्षति पहुंचाने वाला साबित होगा। अभी समय है देश हित को सर्वोच्च प्राथमिकता देते हुए छुद्र स्वार्थ पूर्ति करने वाले राजनैतिक दलों को अपना स्टैण्ड बदलना होगा अन्यथा ऐसे दलों को किसीदीन का न छोड़ने की पहल जनता को स्वयं करनी होगी तभी देश व समाज का कल्याण होना सम्भव होगा। (नवोत्थान लेख सेवा हिन्दुस्थान समाचार)

Thursday 21 August, 2008

हिन्दू कश्‍मीर को मुस्लिम कालोनी किसने बनाया?

मुस्लिम तुष्टिकरण की देशघातक नीति पर चलते हुये 1947 में भारत का विभाजन स्वीकार करने वाली कांग्रेस ने एक बार फिर फिरकापरस्त अलगाववादी तत्वों के आगे घुटने टेक दिये।

उम्मीद के मुताबिक जम्मू-कश्‍मीर के नये राज्यपाल श्री एन. एन. वोहरा ने पद संभालते ही हिन्दुओं की भावनाओं पर मुस्लिम समाज की भावनाओं को तरजीह देते हुये आनन-फानन में श्राईन बोर्ड के सभी अधिकार प्रदेश की सरकार को सौंप कर एक तरफा तानाशाही फैसला थोप दिया। राज्यपाल ने श्राईन बोर्ड की बैठक नहीं बुलाई, हिन्दुओं के धार्मिक नेताओं से बात करना उचित नहीं समझा, कश्‍मीरी नेताओं के राजनीतिक पैंतरों को भीतर से नहीं झांका। राज्यपाल ने यह कहकर कि श्राईन बोर्ड को जमीन की जरूरत नहीं है संविधान, विधायिका और सरकारी परंपराओं का खुला उल्लंघन किया है।

उधर अलगाववादी संगठनों ने कश्‍मीरी राष्‍ट्रीयता और आजादी का सवाल खड़ा करके पूरी कश्‍मीर घाटी में भारत विरोधी हिंसक प्रदर्शन शुरू कर दिये। इन दोनों नेताओं ने भी इस अलगाववादी आग में अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने के लिए इस्लामी तेल छिड़क दिया। इस तरह सभी कश्‍मीरी नेताओं का भारत विरोधी एजेंडा सामने आया और भारत की वफादारी के सभी नकाब उतर गये।

खुले भारत विरोध पर उतरे कश्‍मीरी नेता
अलगाववादी संस्थाओं, पीडीपी, एन।सी. और आतंकवाद समर्थक नेताओं के भारत विरोधी बयानों पर नजर डालने से इनके असली चेहरे साफ दिखाई देते हैं। हुर्रियत कांफ्रेंस के चेयरमैन मीरवाईज उमर फारूख ने गत षुक्रवार को जुमे की नमाज के बाद कश्‍मीरी मुसलमानों को भड़काते हुये कहा कि यह सवाल केवल अमरनाथ श्राईन बोर्ड को दी गई 800 कनाल जमीन वापिस लेने का ही नहीं है। असली मसला तो कश्‍मीरियों की पहचान, संस्कृति और कश्‍मीरी राष्ट्रीयता का है। हिन्दुस्थानियों और हिन्दुस्थान की फौज ने हमारी हजारों कनाल जमीन पर कब्जा कर रखा है। हमारे ऊपर बंदूक के जोर से दबदबा बनाये बैठी हिन्दुस्थानी फौज से हम निजात चाहते हैं। इसी तरह तारीक-ए-हुर्रियत कांफ्रेंस के नेता सईद अलीशाह गिलानी भी बोले कि हमारा वर्तमान आंदोलन तो एक बड़े संघर्ष की शुरूआत है। हम तो कश्‍मीरियों को हिन्दुस्थान के शिकंजे से निकालना चाहते हैं। हिन्दुस्थान ने कश्‍मीर को अपनी कालोनी बनाकर रखा हुआ है। इसी तरह पीडीपी के नेता और पूर्व उपमुख्यमंत्री मुजफ्फर बेग ने तो फिरका परस्ती की सारी हदें पार करके बयान जारी कर दिया कि सवाल कश्‍मीर और कश्‍मीरियत का है। इसलिए पीछे हटने का सवाल ही पैदा नहीं होता। श्राईन बोर्ड पूरी तरह फिरका परस्त है। राज्यपाल (पूर्व) और उसके मुख्यसचिव यहां आग लगाना चाहते थे----क्या हुआ अगर भाजपा ने हमारी सप्लाई लाईन रोकने की धमकी दी है तो दूसरी सड़क तैयार है (श्रीनगर-मुजफ्फरावाद रोड़)............. आई एम. स्पीकिंग आन दा बीआफ आफ माई नेशन (कश्मीर)। उधर पीडीपी की अध्यक्षा महबूबा मुफ्ती और एन.सी. के प्रधान उमर अब्दुल्ला ने भी खुलेआम अलगाववादी संगठनों की हां में हां मिलाते हुये बयान जारी कर दिये कि यह सारा मसला कश्‍मीरी राश्ट्रीयता का है। अमरनाथ श्राईन बोर्ड को जमीन देने से हमारी राश्ट्रीय पहचान को खतरा पैदा हो सकता है।

अमरनाथ श्राईन बोर्ड को दी जाने वाली जमीन के मामले का हल अपने पक्ष में होने से उत्साह में आये अलगाववादी नेताओं का जबड़ा पहले से भी ज्यादा चौड़ा हो गया। घाटी में पाकिस्तान समर्थक माहौल बना दिया गया है। पाकिस्तान और इस्लाम के झण्डे जगह-जगह लहराये जाने लगे। कलाश्निकोव-कलाश्निकोव अर्थात कश्‍मीर हमारा छोड़ दो। यह नारा भारतीय फौज, भारतीय सरकारी अफसरों, घाटी में बचे हुये और सहमे हुये चंद कश्‍मीरी पंडितों, बाहरी राज्य के मजदूरों, पर्यटकों और अमरनाथ यात्रियों के खिलाफ लगाये जा रहे थे। हिजबुल मुजाहिदीन आगे बढ़ो-हम तुम्हारे साथ हैं जैसे नारे आतंकवादियों का मनोबल बढ़ाने के लिए लगाये जाते रहे। कश्‍मीर में क्या चलेगा-निजामे मुस्तफा यह नारा स्वतंत्र इस्लामिक कश्‍मीरी गणतंत्र की हवा बनाने के लिए बड़ी-बड़ी जनसभाओं में लगाया जाता रहा।

सरकार खामोश-पुलिस मूकदर्शक
बाहरी राज्यों से कश्‍मीर में रोजी-रोटी कमाने वाले लगभग 10 लाख मजदूरों को उनके घरों से निकालकर उन्हें नंगा करके मारा पीटा गया। उन्हें भारत विरोधी और पाकिस्तान समर्थक नारे लगाने के लिए मजबूर किया गया। श्रीनगर, सौपुर, कुलगांव, बड़गाम, पुलवामा, सोपियां इत्यादि शहरों और कस्बों में इन गरीब भारतीय मजदूरों पर हमले किये गये। अलगाववादी नेताओं ने इन्हें एक महीने में कश्मीर से चले जाने का अल्टीमेटम देते हुये कहा है कि यह लोग भारत के एजेंट हैं। भारत की सरकार हमारा जनसंख्या संतुलन बिगाड़ने के लिए इन्हें कश्मीर में बसा रही है। माहौल एक बार फिर 1947 में हुये भारत विभाजन जैसा बन चुका है। ऐसा ही माहौल कष्मीर में 1989 में बना था जब हुर्रियत कांफ्रेंस के इन्हीं नेताओं के आदेश पर मस्जिदों से उंची आवाज में कश्‍मीरी पंडितों को भाग जाने का आदेश दिया गया था। कश्‍मीर के प्राचीन और असली निवासी यह कश्‍मीरी पंडित आज अपने ही देश में विस्थापितों की बेसहारा जिन्दगी जी रहे हैं। अलगाववादी नेताओं का सफल प्रयास है कि कश्‍मीर में भारत का कुछ भी न बचे। बस केवल रह जाये तो निजामे-मुस्तफा।

हैरानी की बात तो यह है कि कश्‍मीर में चरम सीमा पर पहुंचे इस खुले फिरकापरस्त, पाक समर्थक, देशद्रोह और हिन्दू विरोध पर केंन्द्र व प्रदेश की सरकार चुपचाप तमाशा देखती रही। कश्‍मीर के राजनीतिक दल अपने-अपने वोट बैंक को बटोरने में अपनी सियासी गोटियां चल रहे हैं। किसी खास साजिश के तहत अलगाववादियों को खुली छूट दी जा रही है। अलबत्ता उनकी मांगों व खतरनाक इरादों की हिमायत करके अपने को उनके ज्यादा नजदीक लाने की होड़ चल रही है।

हिन्दू विहीन कश्‍मीरियत अर्थात इस्लामिक राष्‍ट्र
श्री अमरनाथ श्राईन बोर्ड को जम्मू-कश्‍मीर की सरकार द्वारा दी गई और फिर घुटने टेक राजनीति का शिकार होकर वापिस ली गई जमीन के अति संवेदनशील मामले ने कश्‍मीरी नेताओं के जहन में समाई हुई कश्‍मीरियत की आक्रामक भारत विरोधी मानसिकता पर से पर्दा हटा दिया है। हिन्दू पूर्वजों की संतान इन कष्मीरी नेताओं ने स्वतंत्र कश्‍मीरी राष्‍ट्र का नारा बुलंद करके एक बार फिर यह साबित कर दिया है कि उन्हें अपने हिन्दू पूर्वजों की उज्ज्वल, सार्वभौमिक और दिग्विजयी कश्‍मीरियत से कोई वास्ता नहीं है। इन कट्टरपंथी नेताओं को कश्‍मीर पर आक्रमण करने वाले और इनके ही पूर्वजों की महान संस्कृति को तबाह करके कष्मीर का गौरवशाली चेहरा बिगाड़ने वाले दुर्दांत हमलावरों की विरासत की चिंता है। यही वजह है कि यह कश्‍मीरी नेता एक सौ करोड़ हिन्दुओं को कश्‍मीर में एक सौ एकड़ जमीन देने को भी तैयार नहीं हैं।

स्वदेशी कश्‍मीरियत बनाम विदेशी तहजीब
तलवार के जोर पर खून की नदियां बहाने वाले विदेशी हमलावरों की संस्कृति, इतिहास और विरासत को ही कश्‍मीरियत मानने वाले कट्टरपंथी नेता गिलानी, मुफ्ती, फारूख, बेग, शबीर शाह और यासीन मलिक यह क्यों भूल जाते हैं कि मात्र पांच सौ वर्श पहले सभी कश्‍मीरी हिन्दू ही थे। वर्तमान कश्‍मीरी नेताओं के हिन्दू पूर्वजों ने भारत माता के मुकुट कष्मीर में नाग पूजा मत शैव दर्शन, बौध्द मत, वैष्णो मत आदि मानवीय दर्शन को मानवता की भलाई के लिये सारे संसार के सामने रखा था। सम्राट ललितादित्य, अवंतीवर्मन, हर्श, मेघवाहन, दुर्लभ वाहन, सम्राट चन्द्रापीड़ इत्यादि हिन्दू सम्राटों ने कश्मीरीयत को विश्वव्यापी बनाया। आर्युवेद, गणित, विज्ञान और सांख्यिकी जैसे दर्शन शास्त्र और सिध्दांत कश्‍मीर की ही धरती पर जन्मे, विकसित हुये और विश्व के कोने-कोने में पहुंचे। इस सांस्कृतिक धारोहर को समाप्त करने हेतु विदेशी हमलावरों की विरासत को थोपने के शड़यंत्रों के शिकंजे में फंसे अलगाववादी और हाथों में हथियार उठाये आतंकवादी इन्हीं हिन्दू पूर्वजों का ही खून हैं। यह लोग अपने ही बाप-दादाओं द्वारा बनाये गये मठ मंदिरों, विश्‍वविद्यालयों, सांस्कृतिक केन्द्रों और प्रेरणा स्थलों को बर्बाद करने के काम को ही जेहाद और कश्मीरियत मान बैठे हैं।

ध्यान देने की बात है कि कश्‍मीर की जमीन पर जन्मी सभी पूजा पध्दतियां शैव दर्शन, वैष्‍णव और बौध्दमत इत्यादि में कभी परस्पर संघर्ष नहीं हुआ। यह सभी मत और इनके जन्मदाता, ध्वजवाहक और अनुयायी भारत और भारतीय राष्ट्रीयता के अभिन्न अंग बने रहें। कश्‍मीर की धरती पर कनिश्क और मेहरकुल जैसे विदेशी शासकों ने भी, जो कुशाण और हूण जातियों से संबंधित थे, क्रमश: शैव मत और बौध्द मत को स्वीकार किया और अपना और अपनी जाति का भारतीयकरण करते हुये भारत राष्ट्र की मुख्यधारा में विलीन हो गये। परन्तु जब कष्मीर में इस्लाम का आगमन हुआ तो परस्पर संघर्ष, बलात् धर्मांतरण, पृथकतावाद, दूसरे मजहब को स्वीकार न करने की एक तरफा कट्टरपंथी मनोवृति और खूनी जेहाद का सिलसिला शुरू हो गया। कश्‍मीर की यही त्रासदी है और वर्तंमान में उठाया जा रहा स्वतंत्र कश्मीर राष्ट्र का बवाल भी इसी का एक हिस्सा है। कारण स्पष्ट है कि इस्लाम अपने अनुयायियों को किसी एक देश और वहां की राष्ट्रीयता संस्कृति के साथ जुड़े रहने की इजाजत नहीं देता। इस्लामी बहुमत जहां है वहां इस्लामी राज्य ही होना चाहिए। पाकिस्तान इसी वैचारिक पृष्‍ठभूमि की पैदायश है। कश्‍मीर इसी राह पर चल रहा है।

हिन्दू कश्‍मीर को मुस्लिम कालोनी किसने बनाया?
आज जिन कश्‍मीरी नेताओं को अमरनाथ यात्रा से कश्‍मीर में हिन्दू कालोनी बनाने, मुसलमानों का जनसंख्या अनुपात बिगड़ने और भारतीयों के कश्‍मीर में बस जाने का भय उत्पन्न हो गया है उनसे यह पूछा जाना चाहिए कि 500 वर्श पहले के हिन्दू कश्‍मीर को शत् प्रतिशत मुस्लिम कालोनी में किसने बदला? मारतण्ड जैसे विश्‍व प्रसिध्द सूर्य मंदिर समेत हजारों हिन्दू आस्थास्थलों, मानवता के कल्याणार्थ रचे गये संस्कृत के महान ग्रंथों वाले विशालकाय पुस्तकालयों, सारे संसार को ज्ञान और विज्ञान प्रदान करने वाले विश्‍वविद्यालयों और धार्मिक संस्थानों को किसने उजाड़ा? कश्‍मीर की वास्तविक सूरत बिगाड़ने वाले विदेशी हमलावरों को कश्‍मीर में पांव पसारने और धर्मांतरण की खूनी चक्की चलाने में किसने साथ दिया?

यह कहने की जरूरत नहीं कि कश्‍मीर से भगाये गये वर्तमान कश्‍मीरी पंडित उन बहादुर हिन्दु पूर्वजों की संताने हैं जिन्होंने विदेशी हमलावरों के आगे सर नहीं झुकाया और वर्तमान कश्‍मीरी नेता उन हिन्दू पूर्वजों की संताने हैं जो विदेशी हमलावरों के जुल्मों को सहन नहीं कर सके, धर्मांतरित हो गये और अपने ही पूर्वजों की संस्कृति पर आधारित स्वदेशी कश्‍मीरियत को मिटाकर विदेशी हमलावरों के तलुवे चाटने लगे। कायरता और समर्पण का उपरोक्त सारा इतिहास कश्‍मीर के प्रसिध्द ग्रंथ राजतंरगिणी में मौजूद है और तत्कालीन व वर्तमान मुस्लिम इतिहासकारों ने भी इस कटु सत्य को अपनी पुस्तकों में लिखा है।

कश्‍मीर में विदेशी हमलावरों, हमदान के सईदो, मुगलों और अफगानों द्वारा कश्‍मीर को हिन्दू विहीन करके इस्लामी देश बनाने का यह सिलसिला आज भी जारी है। भारत विभाजन के समय जम्मू-कश्‍मीर के महाराजा हरिसिंह द्वारा इस प्रदेश का भारत में पूर्ण विलय कर दिये जाने के उपरांत शेख मोहम्मद अब्दुल्ला द्वारा सत्ता संभालने के तुरंत बाद श्रीनगर के लाल चौक पर दिया गया भाषण असल में वर्तमान कश्‍मीरी राष्ट्र की मानसिकता की शुरूआत थी। अपने भाषण में बार-बार कलमा दोहराकर वे भोले भाले कश्‍मीरियों में मजहबी उन्माद भड़काते रहे.......'' हमने कश्‍मीर का ताज खाक में से उठाया है, हम हिन्दुस्थान में जायें या पाकिस्तान में यह तो बाद का सवाल है, पहले हमने अपनी आजादी मुकंबल करनी है।'' स्‍पष्‍ट है कि शेख साहब मुस्लिमबहुल घाटी के आवाम को मजहब के नाम पर आजादी की जंग छेड़ने का इशारा कर रहे थे।

आश्‍चर्य की बात तो यह है कि जम्मू-कश्‍मीर को आजादी की जंग की राह पर चलाने वाले शेख मोहम्मद अब्दुल्ला को गिरफ्तार करके पंडित जवाहर लाल नेहरू ने कश्‍मीर के संबंध में की गईं अपनी अनेकों भूलों में से एक को सुधारने की कोशिश की थी, परन्तु 55 वर्षों से खुलेआम किसी न किसी रूप में कश्‍मीरियों को मजहब के आधार पर देशद्रोह के रास्ते पर चलाते आ रहे नेशनल कांफ्रेंस, पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी, हुर्रियत कांफ्रेंस और कांग्रेस के कष्मीरी नेताओं को किसी ने हाथ नहीं लगाया। उलटा तुष्टिकरण की राजनीति के तहत ऐसे कईं समझौतों और वार्ताओं को अंजाम दिया गया जिनसे कश्‍मीर में अलगाववाद को हवा मिली। और अब श्रीअमरनाथ श्राईण बोर्ड से जमीन वापिस लेकर प्रदेश व केन्द्र की सरकारों ने न केवल कश्‍मीरी राष्ट्रीयता के झण्डाबरदारों के आगे समर्पण किया है बल्कि इन तत्वों को अपनी कट्टरपंथी कश्‍मीरियत के एजैंडे पर चलने के लिए प्रोत्साहित भी किया है। अन्यथा तो यदि भारत राष्ट्र के भीतर एक और राष्ट्र स्वतंत्र कश्‍मीर का राग अलापने वालों की अब तक खैर नहीं होती।

विदेशों में उपजी तहजीब कश्‍मीरियत नहीं हो सकती
स्वतंत्र कश्मीर राष्ट्र का नारा बुलंद करने वाले यह क्यों भूल जाते हैं कि राष्ट्र एक सांस्कृतिक अवधारणा होती है, राजनीतिक ईकाई नहीं। जिस मजहब अथवा संस्कृति के आधार पर कश्मीरियत को राष्ट्रीयता बताया जा रहा है वह मजहब अथवा संस्कृति कश्मीर की जमीन पर नहीं जन्मी। इस संस्कृति के निर्माताओं में से एक भी कश्मीरी नहीं था। यह संस्कृति विदेशी हमलावरों के साथ आई। इन हमलावरों ने कश्मीर की पांच हजार वर्श पुरानी संस्कृति, इसके संरक्षकों और अनुयायियों को तहस नहस करके विदेश में उपजी एक तहजीब को थोप दिया। कितनी अजीब बात है कि इस विदेशी आक्रामक तहजीब का डटकर मुकाबला करने और अपनी कुर्बानियाँ देकर कष्मीरियत के इस प्राचीन और सनातन स्वरूप को बचाकर रखने वाले कश्मीरी हिन्दुओं को उनकी धरती से विस्थापित होना पड़ा और उधर इन विदेशी हमलावरों के आगे कायरतापूर्वक घुटने टेक कर कश्मीरयत के असली चेहरे को बिगाड़ने वाले लोग आज कश्मीर के मालिक बनकर कश्मीरी राष्ट्र की दुहाई दे रहे हैं। इन लोगों ने अपने ही पूर्वजों की स्वदेशी कश्मीरियत को तहस-नहस करके विदेश से आये आक्रमणकारियों की तहजीब को कश्मीरियत बना दिया।

जाहिर है कि यह विदेशी तहजीब और मजहब न ही कश्मीरियत और न ही राष्ट्र हो सकती है। ऐसी कश्मीरियत जिसमें कश्मीरी हिन्दुओं का कोई स्थान नहीं, जिसमें कश्मीर की प्राचीन वास्तविक संस्कृति के लिए कोई जगह नहीं और जिसमें कश्मीर के 5 हजार वर्ष पुराने गौरवशाली इतिहास का कोई आधार नहीं, राष्ट्र का रूप नहीं ले सकती। अलगाववादी कश्मीरी नेता जिस मजहबी जनून को राष्ट्र बता रहे हैं वह हिन्दू विहीन कश्मीरियत वास्तव में मुस्लिम राष्ट्र है। राष्ट्रीयता का भाव राष्ट्र की मूल संस्कृति को समझे बिना जागृत नहीं हो सकता। भारत तो प्रांरभ से ही एक राष्ट्र, एक जन और एक संस्कृति के रूप में रहा है और कश्मीर इसी भारत राष्ट्र का अभिन्न हिस्सा था, है और रहेगा।

मजहब बदलने से पुरखे नहीं बदलते है
अत: आज के कश्मीरी आवाम खासतौर पर कश्मीरी युवकों को कश्मीरी राष्ट्र का शोर मचाने वाले नेताओं के चंगुल से निकल कर अपने हिन्दू पूर्वजों द्वारा विकसित भारत राष्ट्र की मुख्यधारा में शामिल हो जाना चाहिए। इसी रास्ते से कश्‍मीरियत की रक्षा होगी। कश्मीरी युवकों को समझना चाहिए कि उनकी रगों में हिन्दू पूर्वजों का खून है। शेष देश की भांति कश्मीर के भी हिन्दू और मुसलमानों के समान पूर्वज हैं, समान इतिहास है, समान संस्कृति है और धरती भी समान है। इसलिए हिन्दू और मुसलमानों की राष्ट्रीयता भी एक ही है। मात्र मजहब बदलने से अथवा पूजा के तौर तरीके बदलने से पुरखे नहीं बदल जाते तो फिर बाप-दादाओं की संस्कृति और राष्ट्रीयता कैसे बदल सकती है? कश्‍मीरी युवकों को गंभीरता से विचार करना चाहिए कि अपने पूर्वजों की तहजीब पर आधारित कश्‍मीरियत को सुरक्षित रखने से इस्लामी सिंध्दांत भी सुरक्षित रहेंगे। कश्‍मीर के प्राचीन ऋषि-मुनियों ने अपने खून से जिस कश्‍मीरियत को सींचा है उस खून से बगावत करने का रास्ता कश्‍मीर के लिए खतरनाक साबित हो रहा है। हथियार बंद कश्‍मीरी आतंकियों के कुकृत्यों से सारा इस्लामिक जगत बदनाम हो रहा है।
अत: कश्‍मीरी नेताओं द्वारा मचाया जा रहा विदेशी कश्‍मीरियत और कश्‍मीरी राष्ट्र का शोर बेबुनियाद, हिंसक, हिन्दू विरोधी, गैर जिम्मेदाराना और इस्लाम के असूलों के भी खिलाफ है। इस्लाम यदि भाईचारे की शिक्षा देता है तो फिर यह खून खराबा क्यों? जो रास्ता कश्‍मीर के अलगाववादी नेताओं और आतंकियों ने अख्तियार किया है उससे कश्‍मीर, कश्‍मीरियत और इस्लाम की तौहीन के सिवा कुछ नहीं हाथ लगेगा। पाकिस्तान अथवा कट्टरपंथी मुल्ला-मोलवियों के बहकावे में आकर अपने कश्‍मीर की हरी-भरी वादियों को न उजाड़ें। स्वदेशी कश्‍मीरियत के साथ पुन: जुड़कर विदेशी कश्‍मीरियत को अलविदा कहें।(आस्था पर आघात पुस्तक से साभार)

कश्‍मीर में हिन्दू और भारत के सभी चिन्ह मिटाने का षडयंत्र अंतिम चरण में

चित्र-याहू जागरण से साभार

भारत के सभी ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, सामाजिक और धार्मिक चिन्हों को समाप्त करके, कश्‍मीर को पूर्णत: हिन्दूविहीन करने का षडयंत्र अपने अंतिम दौर में पहुंच चुका है। ऐतिहासिक स्थलों, नदियों और शहरों के नाम बदलने, कश्‍मीर के चार लाख हिन्दुओं को उनके घरों से भगाने, मुस्लिम धार्मिक आदारों और राजनीतिक नेताओं को कौड़ियों के भाव जमीन देने, हज यात्रियों के लिए हज हाउस बनाने और उन्हें ढेरों सुविधाएं देने, प्रशासनिक और आर्थिक सुविधाओं के ढेर कश्‍मीर में लगाने के बाद घाटी के इन नेताओं ने अब बाबा अमरनाथ यात्रा को नुकसान पहुंचाने के हिन्दू/भारत विरोधी षडयंत्र को कामयाब करने का फैसला कर लिया है।

प्रदेश सरकार के वन विभाग द्वारा बाकायदा मंत्रिमण्डल की मोहर लगने के बाद श्री अमरनाथ श्राईन बोर्ड को बालटाल में दी जा रही 800 कनाल जमीन का विरोध करने के लिए पूरे कश्‍मीर में साम्प्रदायिक आग लगा दी गई। हुर्रियत कांफ्रेंस के कथित उदारवादी चेयरमैन मीरवायज उमर फारूख ने कहा कि श्राईन बोर्ड को जमीन देकर भारत की सरकार कश्‍मीर में हिन्दू कालोनी बनाकर जनसंख्या अनुपात को बदलना चाहती है। अगर सरकार ने यह फैसला नहीं बदला तो खुली बगावत होगी। तहरीके हुर्रियत के नेता सईद अली शाह गिलानी ने बोर्ड को जमीन देने के सरकारी फैसले को इस्लाम विरोधी करार देते हुये अवाम से इसके विरोध में छेड़ी जा रही जंग में कूद पडने का आह्वान कर दिया। जम्मू-कश्‍मीर लिबरेशन फ्रंट के नेता यासिन मलिक, डेमोक्रेटिक फ्रीडम पार्टी के शबीरशाह इत्यादि अलगाववादी नेताओं ने भी अपने सभी भेदभाव बुलाकर खुली बगावत पर उतरने का ऐलान कर दिया। इन नेताओं के अनुसार कश्‍मीरी मुसलमानों को अल्पसंख्यक बनाने और इस्लाम को नुकसान पहुंचाने की साजिश अमरनाथ श्राईन बोर्ड कर रहा है। माहौल को शांत करने की बजाय यह अलगाववादी नेता जलती आग पर तेल छिड़कने का काम कर रहे हैं।

पूर्व मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद ने सरकार से अपना फैसला वापिस लेने के लिए दबाव बनाया। उन्होंने जम्मू-कश्‍मीर की गठबंधन सरकार से इस मुद्दे पर समर्थन वापिस लेने की धमकी दे डाली। मुफ्ती सईद और उनकी बेटी पीडीपी की अध्यक्षा मुफ्ती महबूबा के अनुसार अमरनाथ यात्रा से कश्‍मीर में प्रदूषण फैलता है। पूर्व मुख्यमंत्री डा। फारूख अब्दुल्ला ने भी कहा कि उनकी हकुमत आई तो अमरनाथ श्राईन बोर्ड को दी जाने वाली जमीन वापिस ले ली जायेगी। जबकि फारूख अब्दुल्ला ने एक दिन पहले ही जम्मू में कहा था कि बोर्ड को जमीन देने से किसी का कोई नुकसान नहीं होगा। अमरनाथ यात्रा के कारण कश्‍मीरियों को रोजगार मिलता है। कुछ राजनीतिक दल और अलगाववादी नेता इसका राजनीतिक फायदा उठाने के लिए बेमतलब इसे एक मुद्दा बना रहे हैं। श्रीनगर में जाते ही फारूख अपना पैंतरा बदल गये।

उपमुख्यमंत्री अफजल बेग ने तो एक बहुत ही घटिया बात कह दी कि आर।एस.एस. के इशारे पर ही राज्यपाल और बोर्ड के अध्यक्ष डा. अरूण कुमार प्रदेश में फिरकापरस्ती फैला रहे हैं। संघ ने दोनों को संसद के चुनावों में टिकट देने का आश्‍वासन दिया है। भीतरी सच्चाई यह है कि किसी मुसलमान को जम्मू-कश्‍मीर का राज्यपाल और मुसलमान को ही अमरनाथ श्राईन बोर्ड का अध्यक्ष बनाकर यह कश्‍मीरी नेता हिन्दुओं के धार्मिक स्थलों और यात्राओं पर कब्जा करना चाहते हैं।

उल्लेखनीय है कि श्रीअमरनाथ बोर्ड को जमीन सौंपने का फैसला मुख्यमंत्री, उपमुख्यमंत्री की मौजूदगी में मंत्रीमण्डल में लिया गया था। वन विभाग ने जो शर्तें बोर्ड के आगे रखीं उन सबसे बोर्ड सहमत भी हो गया था। श्राईन बोर्ड ने जमीन का मूल्य 2 करोड़ 31 लाख 30 हजार 400 रूपये वन विभाग को देना स्वीकार किया। यात्रा के बाद बोर्ड को यह जमीन वन विभाग को वापिस करनी थी। यहां पर कोई स्थाई ढांचा भी नहीं बनाया जा सकता। जमीन का टाईटल भी नहीं बदलेगा। श्राईन बोर्ड इस जमीन को लीज अथवा किराये पर भी नहीं दे सकता। उधर विधानसभा की पर्यावरण समिति के अध्यक्श डा। मुस्तफा कमाल ने भी स्पष्‍ट कर दिया था कि अमरनाथ श्राईन बोर्ड को अस्थाई रूप से जमीन देने का फैसला कश्‍मीरी आवाम और किसी धर्म के खिलाफ नहीं है।

इस सबके बावजूद भी कश्‍मीर के सभी वर्गों और विचारों के नेताओं का सड़कों पर उतरना उनके भारत और हिन्दू विरोधी इरादों का परिचायक नहीं है तो और फिर क्या है? दरअसल अमरनाथ यात्रियों की बढ़ती संख्या, अमरनाथ श्राईन बोर्ड की भारी सफलता और हिन्दुओं के इस आस्था केन्द्र की बढ़ती गरिमा को यह कट्टरपंथी नेता बर्दाश्‍त नहीं कर पा रहे हैं। इन नेताओं को अपने वोट बैंक मजबूत करने और कष्मीर की पुरानी और हिन्दुओं की सांस्कृतिक विरासत के चिन्हों तक को मिटाने की चिंता है। पूरे भारत में हज यात्रियों के लिए बने स्थाई केन्द्रों और कश्‍मीर में किसी प्रकार के स्थाई इंतजामों से प्रदूषण नहीं फैलता परन्तु अमरनाथ यात्रियों के लिए की जा रही अस्थाई व्यवस्था से प्रदूषण भी फैलता है और इस्लाम को खतरा भी पैदा होता है।

इधर हिन्दू संगठनों के नेताओं ने कश्मीरी नेताओं के इन हिन्दू विरोधी बयानों और खुली बगावत पर उतरने की धमकी को भारत विरोधी करार देकर दृढ़ता के साथ इसका मुकाबला करना और इस षडयंत्र को सफल न होने देने की ठान ली। हिन्दू नेता अनेक सवाल खड़े कर रहे हैं। वे पूछते हैं कि यदि राजौरी में बाबा गुलामशाह इस्लामिक विश्‍वविद्यालय बनाने के लिए वन विभाग की जमीन दी जा सकती है, गुलमर्ग में रोशनी एक्ट के अंतर्गत 550 कनाल जमीन कश्‍मीर के धन्ना सेठों को होटल बनाने के लिए दी जा सकती है, जब मुगलरोड़ के निर्माण के लिए हजारों पेड़ काटे जा सकते हैं और इसके लिए वाइल्ड लाईफ केन्द्रों को तबाह किया जा सकता है और इधर जम्मू के आसपास बठिंडी, सुंजवा और नरवाल इत्यादि स्थानों पर सैंकड़ों कनाल जमीन बड़े-बड़े कष्मीरी नेताओं को कोठियां बनाने के लिए कौढ़ियों के भाव दी जा सकती है तो अमरनाथ यात्रियों की सुविधा के लिए जमीन देने से इस्लाम को कौन सा खतरा पैदा हो गया है? कश्‍मीर में सार्वजनिक स्थलों के निर्माण के बहाने कश्‍मीरी पंडितों की जमीनों पर सरकारी कब्जे किये जा रहे हैं। उनके घरों, बाग-बगीचों और आस्था स्थलों पर आतंकवादी काबिज हो गये हैं। यह सारी गतिविधियां कश्‍मीरी नेताओं को क्यों दिखाई नहीं देती? लोग पूछते हैं कि जब मंत्रिमण्डल ने वन विभाग के प्रस्ताव को स्वीकार किया था तो उपमुख्यमंत्री और कानून मंत्री अफजल बेग वहां मौजूद थे तब उन्होंने विरोध क्यों नहीं किया?

हैरानी की बात है कि अमरनाथ यात्री तो कष्मीर में प्रदूषण फैलाते हैं परन्तु राजस्थान के अजमेर-शरीफ पर एकत्रित होने वाले दुनिया भर के मुसलमान प्रदूषण नहीं फैलाते। भारत में हजारों स्थानों पर मुसलमान भाई अपनी धार्मिक गतिविधियों को हिन्दुओं के सहयोग और सरकारी मदद से चलाते हैं। क्या कभी किसी हिन्दू नेता ने भी उन पर उंगली उठाई है? कश्‍मीर के लोग पूरे देश में जमीन जायदाद खरीद सकते हैं, अपनी राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक और व्यापारिक गतिविधियों को स्वतंत्रतापूर्वक अंजाम दे रहे हैं। फिर कश्‍मीर में हिन्दुओं की धार्मिक गतिविधियों पर इतना बवाल क्यों मचाया जा रहा है? कश्‍मीर की धरती अलगाववादियों, आतंकवादियों अथवा कश्‍मीर के राजनीतिक दलों की निजी जायदाद नहीं है। उस पर सारे देशवासियों का हक है। अपने इस हक के लिए यदि समस्त भारतवासी खासतौर पर हिन्दू प्रयास करते हैं तो कश्मीर में एक विशेष समुदाय के नेताओं को कष्‍ट क्यों होता है?

सचाई तो यह है कि कश्‍मीर के इस्लामीकरण की प्रक्रिया को पूरा करने के षडयंत्र रचे जा रहे हैं। अमरनाथ श्राईन बोर्ड को दी जाने वाली जमीन तो एक बहाना है अन्यथा श्राईन बोर्ड द्वारा यात्रा को पूर्णत: प्रदूषण मुक्त बनाने के सभी आधुनिक, वैज्ञानिक तौर-तरीकों को अपनाने और बालटाल में मिली भूमि से संबंधित सभी सरकारी शर्तों को मानने के बावजूद भी कश्‍मीरी नेताओं का सड़कों पर उतरकर खुली बगावत करना उनके असली इरादों का ही प्रतीक है। (आस्था पर आघात पुस्तक से साभार)

Monday 18 August, 2008

आजादी एक चुनौती है, बीड़ा कौन उठाएगा

-संजीव कुमार सिन्हा

भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं। जवाहरलाल नेहरू ने 1947 में 14-15 अगस्त की मध्यरात्रि में 'भारत की नियति के साथ मिलन' का संदर्भ देते हुए कहा कि स्वाधीनता प्राप्ति के साथ ही हमें एक ऐसे राष्ट्र के निर्माण के लिए काम करना होगा, जहां प्रत्येक बच्चे, महिला और पुरूषों को बेहतर स्वास्थ्य, भोजन, शिक्षा और रोजगार के अवसर उपलब्ध हों।

भारत की आजादी के 61 वर्ष बीत गए। क्या पं नेहरू के उक्त संकल्प की दिशा में देश विकास की ओर अग्रसर है? आज विकास की दो दिशाएं दिखाई पड़ती है। एक है- इंडिया का विकास और दूसरा है- भारत का विकास। 'इंडिया' की अगुआई अंग्रेजियत में रंगे नौकरशाह, राजनेता, पूंजीपति और शहरी वर्ग के लोग कर रहे हैं, वहीं 'भारत' में समाज के अंतिम पंक्ति में खड़े देश के 75 फीसदी गरीब, जो गांवों में रहते हैं, शामिल है। 'इंडिया' में लगातार बढ़ रहे 36 अरबपतियों की संख्या समाहित हैं तो 'भारत' में 77 करोड़ लोग, जिनकी आमदनी प्रतिदिन 20 रुपए से भी कम है, शामिल है। असमानता की खाई इस कदर चौड़ी हो रही है कि भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर श्री विमल जालान कहते है कि भारत के 20 सबसे अधिक धनवानों की आय 30 करोड़ सबसे गरीब भारतीयों से अधिक है। यही विषमता आज भारत की मुख्य समस्या है।

आंकड़ों पर नजर दौड़ाएं तो देश के सामने अनेक चुनौतियां मुंह बाएं खड़ी हैं। दुनिया भर में सबसे अधिक अरबपतियों की संख्या के हिसाब से भारत चौथे स्थान पर है। वहीं ग्लोबल हंगर इंडेक्स में हम 94वें स्थान पर हैं। 11वीं पंचवर्षीय योजना के मुताबिक 2004-05 में गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों का प्रतिशत 27।8 अनुमानित था। लोगों की आय, स्वास्थ्य, शिक्षा के आधार पर तैयार किए जाने वाले मानव विकास सूचकांक में 2004 में 177 देशों की सूची में भारत का स्थान 126 वां था।

हमारी आबादी का दो-तिहाई हिस्सा अभी भी खेती पर ही आश्रित है लेकिन सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का योगदान 20 प्रतिशत से भी कम हो गया है। 38 मीलियन हेक्टेयर क्षेत्र पर हम आज भी खेती नहीं करते, जबकि इस जमीन पर जोत संभव है। गौरतलब है कि 38 मीलियन हेक्टेयर क्षेत्र पाकिस्तान, जापान, बांग्लादेश और नेपाल के कुल सिंचित क्षेत्र से भी ज्यादा है।

भारत सरकार का वर्ष 2007-2008 का आर्थिक सर्वेक्षण कहता है कि 1990 से 2007 के दौरान खाद्यान्न उत्पादन 1।2 प्रतिशत कम हुआ है, जो कि जनसंख्या की औसतन 1.9 प्रतिशत वार्षिक बढ़ोत्तरी की तुलना में कम है। इसके फलस्वरूप मांग और आपूर्ति में भारी अंतर है, जिसकी वजह से खाद्य संकट की आशंका बराबर बनी रहती है। 1990-91 में अनाजों की खपत प्रतिदिन प्रति व्यक्ति 468 ग्राम थी जो कि 2005-2006 में प्रतिदिन 412 ग्राम प्रति व्यक्ति हो गई है। केन्द्र सरकार यह बात स्वीकार कर चुकी है कि हर साल लगभग 55,600 करोड़ रुपये का खाद्यान्न उचित भंडारन आदि न होने के कारण नष्ट हो जाता है।

हालात ऐसे हो गए हैं कि कृषि प्रधान देश भारत में 40 प्रतिशत किसान, खेती छोड़ना चाहता है। पिछले 10 वर्षों में 80 लाख लोगों ने खेती-किसानी छोड़ी है। एक आकलन के अनुसार 85 प्रतिशत से अधिक ग्रामीण परिवार या तो भूमिहीन, उपसीमांत, सीमांत किसान है या छोटे किसान है। भारत की आजादी के 61 वर्षों बाद भी लगभग 50 प्रतिशत ग्रामीण परिवार अभी भी साहूकारों पर निर्भर रहते हैं। नेशनल सैम्पल सर्वे हमें बताता है कि किसानों की ऋणग्रस्तता पिछले एक दशक में लगभग दोगुनी हो गई है। देश के 48।60 फीसदी किसान कर्ज के तले दबे हुए हैं। हर किसान पर औसतन 12,585 रू. का कर्ज है। भारतीय किसान परिवार का औसत प्रति व्यक्ति मासिक खर्च 302 रुपए है। स्थिति की भयावहता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 1993 से अब तक करीब 1,12,000 किसान आत्महत्या कर चुके है।

आंकड़े बताते हैं कि प्रति व्यक्ति मिलने वाला अनाज घट गया है। इसका असर व्यक्ति के स्वास्थ्य पर भी दिखाई देता है। वर्ष 2005-2006 में कराए गए राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे में कहा गया है कि देश में 5 साल से कम उम्र के बच्चे शारीरिक रूप से अविकसित हैं और इसी उम्र के 43 फीसदी बच्चों का वजन (उम्र के हिसाब से) कम है। इनमें से 24 फीसदी शारीरिक रूप से काफी ज्यादा अविकसित हैं और 16 फीसदी का वजन बहुत ही ज्यादा कम है। देश में 15 से 49 साल की उम्र के बीच की महिलाओं का बॉडी मांस इंडेक्स (बीएमआई) 18।5 से कम है, जो उनमें पोषण की गंभीर कमी की ओर इशारा करता है और इन महिलाओं में से 16 फीसदी तो बेहद ही पतली हैं। इसी तरह देश में 15 से 49 साल की उम्र के 34 फीसदी पुरुषों का बीएमआई भी 18.5 से कम है और इनमें से आधे से ज्यादा पुरुष बेहद कुपोषित हैं। देश में कुपोषण के शिकार बच्चे की स्थिति के मामले में हमारा देश नीचे से 10 वें नंबर पर है।

सुगठित शिक्षा व्यवस्था राष्ट्रीय विकास की धुरी होती है लेकिन देश में शिक्षा-व्यवस्था की हालत अच्छी नहीं है। भारत में 300 से ज्यादा विश्वविद्यालय हैं पर उनमें से केवल दो ही हैं जो विश्व में पहले 100 में स्थान पा सकें। सन् 2005 में विश्वबैंक के अध्ययन में पता चला था कि हमारे देश में 25 प्रतिशत प्राइमरी स्कूल के अध्यापक तो काम पर जाते ही नहीं हैं। पिछले दिनों नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ एजुकेशनल प्लानिंग एंड एडमिनिस्ट्रेशन के एक सर्वेक्षण में यह पता चला कि इस देश के 42 हजार स्कूल ऐसे भी हैं, जिनका अपना कोई भवन ही नहीं है। देश के 32 हजार विद्यालयों में शिक्षक नहीं है। अमेरिका में कुल बजट का 19।9 प्रतिशत, जापान में 19.6 प्रतिशत, इंग्लैंड में 13.9 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च किया जाता है। जबकि भारत में शिक्षा पर बजट का मात्र 6 प्रतिशत भाग खर्च किया जाता है। शिक्षा पर केंद्र सरकार सकल घरेलू उत्पाद का 3.54 फीसद और कुल सकल उत्पाद का 0.79 फीसद खर्च करती है जबकि राज्य सरकारें 2.73 फीसद खर्च करती है। यूनिसेफ की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में स्कूल जाने वालों में 40 प्रतिशत बच्चे अंडरवेट होते हैं और 42 प्रतिशत कुपोषण के शिकार। देश के 63 प्रतिशत बच्चे 10वीं कक्षा से पहले ही स्कूल छोड़ देते हैं। एक आकलन के मुताबिक भारत के मात्र 10 फीसद युवाओं को उच्च शिक्षा मिलती है जबकि विकसित राष्ट्रों के 50 फीसद युवाओं को उच्च शिक्षा मिलती है। विदेशों में विज्ञान और तकनीकी शिक्षा ले रहे भारतीय छात्रों में से 85 फीसद वतन लौट कर नहीं आते।

इराक के बाद भारत सर्वाधिक आतंकवाद का दंश झेल रहा है। हाल ही में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ने चिंता व्यक्त की कि देश में आतंकवादियों के 800 से ज्यादा ठिकाने है। भारत में अब तक हुए आतंकवादी हिंसा में 70,000 से अधिक बेगुनाहों के प्राण चले गए, जबकि पाकिस्तान तथा चीन के साथ जो युध्द हुए हैं, उनमें 8,023 लोगों की मौतें हुई। गृह मंत्रालय द्वारा जारी रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2007 में नवंबर के अंत तक नक्सली हिंसा की 1385 घटनाएं हुईं, जिसमें 214 पुलिस कार्मिक व 418 नागरिक मारे गए, वहीं 2006 में 1389 घटनाएं हुईं, जिसमें 133 पुलिस कार्मिक व 501 लोग मारे गए। इस समय माओवादियों का प्रभाव 16 राज्‍यों में है। देश के 604 जिलों में 160 जिले पर माओवादियों या नक्सलवादियों का कब्जा है। देश का 40 प्रतिशत भू-भाग नक्सलवादी हिंसा से प्रभावित है। पूर्वोत्तर की स्थिति चिंताजनक है। वर्ष 2007 में यहां 1489 हिंसक घटनाएं हुई, जिनमें 498 सामान्य नागरिक आंतकवादी हिंसा के शिकार हुए।

हमारी शासन प्रणाली मुकदमेबाजी को बढ़ावा दे रही है। भ्रष्टाचार का महारोग देश को आगे बढ़ने में बाधित कर रहा है। ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल संस्था के अनुसार दुनिया के 172 देशों में भारत भ्रष्टाचार के 72वें पायदान पर है। अलगाववादी प्रवृतियां राष्ट्रीय एकता को चुनौती दे रहा हैं। अल्पसंख्यक तुष्टिकरण का विषवेल समाज को नुकसान पहुंचा रहा है। मीडिया के माध्यम से सहज ही पाश्चात्य संस्कृति का आक्रमण हो रहा है। जातिवाद, सामाजिक समरसता को छिन्न-भिन्न कर रहा है। घुसपैठ आंतरिक सुरक्षा को तार-तार कर रहा है। 2।5 करोड़ बंगलादेशी घुसपैठियों के कारण देश पर 90 करोड़ रुपए का अतिरिक्त बोझ पड़ रहा है। 13 प्रतिशत को छू रही महंगाई की दर लोगों का जीना मुहाल कर रही है। वहीं बेरोजगारों की संख्या लगभग 25 से 30 करोड़ है। हर साल 3.5 से 4 करोड़ नए रोजगार ढूढने वाले जुड़ रहे है। इस गंभीर समस्या का निदान होना अत्यंत जरूरी है।

हर देश की अपनी अलग समस्याएं होती है। पाश्चात्य विचार के अनुगामी बनकर तो इसका समाधान कतई नहीं होगा। इसका उत्तर स्थानीय परिवेश में ही ढूढा जाना चाहिए। और ऐसा तब होगा जब देशवासियों के मन में स्वदेशी भावना प्रबल हो, वे अपने कर्तव्य और अधिकार के प्रति सचेत हों। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने लोगों में सामाजिक एकता की भावना को प्रबल करने के लिए 'गणेश उत्सव' का शुभारंभ किया। महर्षि अरविंद ने सनातन धर्म को राष्ट्रवाद से जोड़ा। गांधीजी ने सदैव धर्म के महत्व को रेखांकित किया। श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन ने छद्म पंथनिरपेक्षता को धराशायी किया। इसी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की धारा का सहयात्री बनने से हम भारत को विश्व का सिरमौर बना सकेंगे। अजीब विडंबना है कि आज के समय में ऐसी पहल करने वालों पर साम्प्रदायिक होने का आरोप मढ़ दिया जाता है।

पूर्व राष्ट्रपति डॉ। एपीजे अब्दुल कलाम ने विजन 2020 की अवधारणा देश के सामने प्रस्तुत करते हुए कहा था कि वर्ष 2020 का भारत एक ऐसा देश हो, जिसमें ग्रामीण एवं शहरी जीवन के बीच कोई दरार न रहे। जहां सबके लिए बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध हो और देश का शासन जिम्मेदार, पारदर्शी और भ्रष्टाचारमुक्त हो। जहां गरीबी, अशिक्षा का कोई अस्तित्व न हो और देश महिलाओं एवं बच्चों के प्रति होनेवाले अपराधों से मुक्त हो।

राष्ट्रीय समृध्दि विरासत में नहीं मिलती, उसे बनाना पड़ता है। सिर्फ सरकार के भरोसे देश का विकास सुनिश्चित नहीं होगा। भारत आज एक युवा राष्ट्र है। इस समय 70 प्रतिशत से अधिक लोग 35 साल से कम उम्र के हैं। देश को समृध्दशाली बनाने की चुनौती युवाओं को स्वीकार करनी होगी, समस्याओं को कोसने के बजाए सार्थक हस्तक्षेप के लिए आगे आना होगा, तभी सही मायने में आजादी सार्थक होगी।

Thursday 14 August, 2008

श्री अटल बिहारी वाजपेयी की कविता


कवि आज सुना वह गान रे,
जिससे खुल जाएँ अलस पलक।
नस–नस में जीवन झंकृत हो,
हो अंग–अंग में जोश झलक।
ये - बंधन चिरबंधन
टूटें – फूटें प्रासाद गगनचुम्‍बी
हम मिलकर हर्ष मना डालें,
हूकें उर की मिट जाएँ सभी।

यह भूख – भूख सत्यानाशी
बुझ जाय उदर की जीवन में।
हम वर्षों से रोते आए
अब परिवर्तन हो जीवन में।

क्रंदन – क्रंदन चीत्कार और,
हाहाकारों से चिर परिचय।
कुछ क्षण को दूर चला जाए,
यह वर्षों से दुख का संचय।

हम ऊब चुके इस जीवन से,
अब तो विस्फोट मचा देंगे।
हम धू - धू जलते अंगारे हैं,
अब तो कुछ कर दिखला देंगे।

अरे ! हमारी ही हड्डी पर,
इन दुष्टों ने महल रचाए।
हमें निरंतर चूस – चूस कर,
झूम – झूम कर कोष बढ़ाए।

रोटी – रोटी के टुकड़े को,
बिलख–बिलखकर लाल मरे हैं।
इन – मतवाले उन्मत्तों ने,
लूट – लूट कर गेह भरे हैं।

पानी फेरा मर्यादा पर,
मान और अभिमान लुटाया।
इस जीवन में कैसे आए,
आने पर भी क्या पाया?

रोना, भूखों मरना, ठोकर खाना,
क्या यही हमारा जीवन है?
हम स्वच्छंद जगत में जन्मे,
फिर कैसा यह बंधन है?

मानव स्वामी बने और—
मानव ही करे गुलामी उसकी।
किसने है यह नियम बनाया,
ऐसी है आज्ञा किसकी?

सब स्वच्छंद यहाँ पर जन्मे,
और मृत्यु सब पाएँगे।
फिर यह कैसा बंधन जिसमें,
मानव पशु से बंध जाएँगे ?

अरे! हमारी ज्वाला सारे—
बंधन टूक-टूक कर देगी।
पीड़ित दलितों के हृदयों में,
अब न एक भी हूक उठेगी।

हम दीवाने आज जोश की—
मदिरा पी उन्मत्त हुए।
सब में हम उल्लास भरेंगे,
ज्वाला से संतप्त हुए।

रे कवि! तू भी स्वरलहरी से,
आज आग में आहुति दे।
और वेग से भभक उठें हम,
हद् – तंत्री झंकृत कर दे।

Wednesday 13 August, 2008

भाजपा और मुसलमानों के बीच रिश्ता : बदलाव की बयार

-फ़िरदौस ख़ान

सुश्री फिरदौस खान युवा पत्रकार है। आपने दैनिक भास्कर और हरिभूमि में वरिष्‍ठ उप संपादक के नाते कार्य किया है। आपके लेख देश के विभिन्न प्रतिष्ठित पत्रिकाओं और समाचार-पत्रों में छपते है। निर्भीकता और ग्रामोन्‍मुख पत्रकारिता आपके लेखन की विशेषता है। फिलहाल आप स्‍वतंत्र लेखन कार्य में अनवरत् जुटी हुई है। निम्न लेख में उन्होंने भाजपा के प्रति मुस्लिम समुदाय की सोच में आ रहे बदलाव पर विचार प्रस्‍तुत किए है-

कभी मुसलमानों के लिए अछूत मानी जाने वाली भारतीय जनता पार्टी के प्रति अब लोगों की सोच में खासा बदलाव आया है। इसकी वजह यह भी मानी जा सकती है कि जिस एजेंडे के कारण भाजपा पर सांप्रदायिक पार्टी होने का ठप्पा लगा हुआ था, वह अब उस मुद्दे को दरकिनार कर देश के विकास और सुरक्षा की बात करने लगी है। इसके साथ ही मतदाताओं में भी जागरूकता आई है और वे इस चीज को समझने लगे हैं कि कौन उनके हित की बात कर रहा है और कौन उन्हें महज वोट बैंक मानकर इस्तेमाल करना चाहता है। यह कहना कतई गलत न होगा कि भाजपा ने हमेशा तुष्टिकरण और धर्म आधारित केवल उन्हीं नीतियों का विरोध किया है, जो देश की एकता और अखंडता के लिए खतरा रही हैं।

हाल ही में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में पूर्व उपप्रधानमंत्री श्री लालकृष्ण आडवाणी द्वारा दिया गया बयान भी इस बात को साबित करता है। उन्होंने जनसंपर्क में तेजी लाने के साथ इस बात पर खासा जोर दिया कि मुसलमानों और ईसाइयों को भी पार्टी से ज्यादा से ज्यादा संख्या में जोड़ा जाए। उन्होंने कहा कि भाजपा समाज को अलग-अलग हिस्सों में बांटे बगैर अल्पसंख्यकों का चौतरफा विकास और उनकी भागीदारी चाहती है। लेकिन उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि भाजपा के समन्वित एजेंडे में तुष्टिकरण और मजहब आधारित आरक्षण के लिए कोई जगह नहीं है। उन्होंने यह भी कहा कि जनसंपर्क अभियानों में लोगों को यूपीए सरकार की विफलताओं से अवगत कराने के साथ-साथ पार्टी के एजेंडे के बारे में भी जानकारी दी जाए।

बैठक में श्री आडवाणी ने कहा कि अगर भाजपा को पर्याप्त समर्थन मिल जाए तो निश्चित रूप से राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के विस्तार और शक्ति पर सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। उन्होंने गठबंधन में नए दलों के शामिल होने की उम्मीद जताते हुए कहा कि हमें यह याद रखना चाहिए कि राजग का विस्तार, स्थिरता और मेल-मिलाप हमारी इस योग्यता पर निर्भर करता है कि हम उन गुटों को भी आकृष्ट करें और जोड़े रखें, जो सभी मुद्दों पर भारतीय जनता पार्टी से सैध्दांतिक रूप से नहीं जुड़ सके हैं। उन्होंने कहा कि जनता आज ऐसी सरकार चाहती है जो भ्रष्टाचार मुक्त शासन दे सके और देश को विकास और सुरक्षा के मामले में सुदृढ़ बनाने के प्रति वचनबध्द हो। इस सच्चाई की अनुभूति और एक सांझा एजेंडे के आधार पर एक गठबंधन के रूप में मिलकर काम करने की इच्छा शक्ति वर्ष 1998 और 1999 में राजग की सफलता के लिए महत्वपूर्ण थी। दरअसल, भाजपा विभिन्न राजनीतिक दलों से कश्मीर में धारा-370 हटाने और समान नागरिक संहिता लागू करने जैसे मुद्दों पर मतभेदों को दरकिनार कर एक ऐसी सरकार बनाना चाहती है, जो देश के विकास और सुरक्षा को महत्व देते हुए भारत को स्थायी सरकार देने के प्रति वचनबध्द हों। श्री आडवाणी द्वारा दिए गए इन स्पष्ट बयानों से कांग्रेस की चिंता बढ़ी है। राजग गठबंधन का विस्तार न हो और भाजपा व उसके मित्र दलों के बीच सेकुलरिज्म के मुद्दे पर दरार पड़े, कांग्रेस की यह साजिश नाकाम होती नजर आ रही है।

पिछले दिनों भारतीय जनता पार्टी के अल्पसंख्यक मोर्चे की हैदराबाद में हुई बैठक में पारित प्रस्ताव में भी इस बात पर जोर दिया कि कार्यकर्ता अल्पसंख्यकों विशेषकर मुसलमानों के बीच जाकर काम करें और उन्हें पार्टी की नीतियों से अवगत कराएं। मोर्चे के अध्यक्ष व भागलपुर लोकसभा क्षेत्र से सांसद शाहनवाज हुसैन ने मुसलमानों से आह्वान किया कि वे पूर्वाग्रहों को छोड़कर देश व कौम की तरक्की के लिए आगे आएं। उन्होंने श्री आडवाणी की आत्मकथा 'माई कंट्री माई लाइफ' के शीघ्र ही उर्दू अनुवाद वाली पुस्तक लाने की घोषणा भी की।

इसमें कोई दो राय नहीं कि कांग्रेस और अन्य तथाकथित सेकुलर दलों ने अपने राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए धर्मनिरपेक्षता के नाम पर हमेशा से ही लोगों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया है। इसका सबसे ज्यादा खामियाजा अल्पसंख्यकों खासकर मुसलमानों को उठाना पड़ा। देश की आजादी के बाद करीब पांच दशकों से भी ज्यादा समय तक कांग्रेस सत्ता पर काबिज रही है। इसके बावजूद मुसलमानों की हालत इतनी बदतर कैसे हो गई कि सरकार को उनकी आर्थिक, सामाजिक और शैक्षिक हालत जानने के लिए सच्चर कमेटी गठित करनी पड़ी? सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में भी इस बात पर चिंता जताई गई कि देश के मुसलमानों की हालत दलितों से भी बदतर है। यहां गौर करने लायक बात यह भी है कि भाजपा शासित राज्यों में मुसलमानों की हालत बेहतर पाई गई। मुसलमानों की हितैषी होने का दम भरने वाली माकपा शासित राज्य पं. बंगाल में भी मुसलमानों की हालत बेहद दयनीय है।

बढ़ती महंगाई, भ्रष्टाचार और अराजकता के इस दौर में लोगों का जीना मुहाल हो गया है, लेकिन प्रधानमंत्री डॉ। मनमोहन सिंह केवल मूकदर्शक बनकर देखने के सिवा और कुछ नहीं कर पा रहे हैं। परमाणु करार के नाम पर सरकार से समर्थन वापस लेने की धमकी देने वाले वामपंथी दल भी चुप्पी साधे बैठे हैं। नंदीग्राम और सिंगुर कांड भी वामपंथी दलों की कथनी और करनी के अंतर को बयां करने के लिए काफी है। सरकार की इससे ज्यादा कमजोरी और क्या होगी कि वाजपेयी सरकार द्वारा मई 1998 में पोखरण में कराए गए परमाणु बम के परीक्षण की दसवीं वर्षगांठ तक नहीं मनाई गई। सरकार दोषपूर्ण भारत-अमेरिकी परमाणु समझौते के जरिये देश की रणनीतिक रक्षा क्षमता को निष्क्रिय करने में लगी हुई है। सवाल यह है कि जिस सरकार की लोकतंत्र में आस्था और विश्वास ही संदिग्ध हो, उसके हाथों में देश कितना सुरक्षित है? क्या देश उन्नति के उस शिखर को छू पाएगा, जिसका सपना हर भारतवासी की आंखों में बसा है?

ऐसे में भाजपा विकल्प के तौर पर आज सबसे ज्यादा सक्षम पार्टी नजर आती है। वाजपेयी सरकार के कार्यकाल के दौरान किए गए कार्य सबके सामने हैं। पहले रसोई गैस सिलेंडर लोगों को उनके दरवाजे पर मिल जाया करता था, लेकिन अब कई दिन पहले बुकिंग करने के बाद भी घंटों लाइनों में लगने के बाद ही मिल पाता है। इतना ही नहीं गैस कीमतों में भी लगातार भारी इजाफा हो रहा है, जिसने महंगाई से जूझ रहे लोगों की परेशानियां और ज्यादा बढ़ा दी हैं। इन्हीं गलत नीतियों के कारण आज कांग्रेस के साथ उसके सहयोगी दल भी जनाधार खो रहे हैं। गौरतलब है कि मई 2004 से अब तक कांग्रेस को 12 राज्यों के चुनाव में हार का सामना करना पड़ा है, जबकि भाजपा व उसके सहयोगी दलों ने बिहार, उत्तराखंड, पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, गुजरात, नागालैंड और अब कर्नाटक में जीत हासिल की। कर्नाटक में एक मुस्लिम को मंत्रिमंडल में कैबिनेट रैंक का मंत्री बनाने से मुसलमानों में भी भाजपा के प्रति विश्वास बढ़ा है।

कर्नाटक में पार्टी की शानदार जीत और कांग्रेस की हार से पैदा हुई स्थिति को 'बदलाव का मोड़' बताते हुए श्री आडवाणी ने इसकी तुलना वर्ष 1989 में आए उस बदलाव से की जब भाजपा ने 1984 में केवल दो सांसदों के मुकाबले पांच वर्ष बाद 86 सांसदों से लोकसभा में अपनी बढ़ोतरी दर्ज कराई। इसके बाद भाजपा के सांसदों की संख्या में लगातार वृध्दि होती गई और 1998 में एक दशक के भीतर ही श्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में पार्टी केंद्र में सरकार बनाने में कामयाब रही।

युवाओं और महिलाओं को साथ लेकर चलने की भाजपा की नीति भी बेहतर नतीजे सामने लाएगी, ऐसी उम्मीद की जा सकती है। हाल ही में भाजपा के युवा मोर्चे ने 'प्रथम मतदाता सम्मान अभियान' नाम से एक मुहिम शुरू की है। इसका मकसद देश के उन दस करोड़ युवा मतदाताओं को पार्टी से जोड़ने का प्रयास करना है, जो आगामी लोकसभा चुनाव में पहली बार मतदान करेंगे। अलबत्ता, उम्मीद की जा सकती है कि आने वाले समय में भाजपा समाज के उन वर्गों और समुदायों में अपनी पैठ बनाने में कामयाब रहेगी, जो अब तक इससे अछूते रहे हैं।

Friday 8 August, 2008

यूं धधकी जम्मू की आग -विनोद बंसल


जम्मू-कश्मीर के सुरम्य पर्वत शृंखला में 13500 फुट की ऊंचाई पर अनादि काल से भगवान शिव हिमलिंग के रूप में श्रीअमरनाथ गुफा में विराजमान हैं। इस स्थान पर हजारों वर्षों से बाबा अमरनाथ जी के दर्शन करने के लिए यात्रा चलती आ रही है जो प्रत्येक वर्ष श्रावण पूर्णिमा को सम्पन्न होती है। 1991 के बाद यहां आने वाले यात्रियों की संख्या बढ़ना शुरू हुई और यात्रा का समय भी बढ़ाकर एक महीना किया गया।

यह यात्रा अत्यंत कठिन है। चंदनवाडी से 35 कि.मी. पैदल मार्ग का रास्ता अत्यन्त ही कठिन है। बीच-बीच में बहुत संकरा भी है। बर्फ के ग्लेशियर आते हैं, नदी पार करनी पड़ती है और दो दिन में तीर्थयात्री पावन गुफा पर पहुंचते हैं। दूसरा रास्ता बालटाल से जाता है, जहां से अमरनाथ गुफा जाने के लिए 12 कि.मी. का ग्लेशियरों से भरा पैदल मार्ग है जो अत्यन्त कठिन होने के साथ-साथ खतरनाक भी है।
यात्रा का सारा नियंत्रण सरकार के द्वारा होता था लेकिन उसके कुप्रबंधन तथा अव्यवस्था के चलते 1996 में आए बर्फानी तूफान के कारण सैकड़ों श्रध्दालु मारे गये। यात्रा आतंकवादियों के आक्रमण का भी निशाना बनी। तब राज्य सरकार इस सकते में आई उसने श्री अमरनाथ यात्रा की सुरक्षा-व्यवस्था, प्रबंधन आदि के अध्ययन के लिए ''नितीश सेन कमेटी'' का गठन किया। इस कमेटी ने अपने सुझाव देते हुए कहा कि यात्रा पथ को और चौड़ा किया जाए, यात्रा की समयावधि बढ़ाई जाए, यात्रियों की निर्धारित संख्या प्रतिदिन निष्चित की जाए तथा यात्रा मार्ग में स्थान-स्थान पर अस्थायी आवासों का निर्माण हो।

इन्हीं सुझावों को ध्यान में रखते हुये वर्ष दो हजार में जम्मू-कश्मीर की विधानसभा ने प्रस्ताव पारित करके जम्मू एवं कश्मीर श्री अमरनाथ जी श्राईन एक्ट, 2000 के तहत ''श्री अमरनाथ श्राईन बोर्ड'' का गठन किया गया। राज्यपाल अगर हिन्दू हैं तो वह इस बोर्ड के पदेन अध्यक्ष होंगे और अगर राज्यपाल हिन्दू नहीं हैं तो उनके द्वारा नामांकित हिन्दू व्यक्ति बोर्ड का अध्यक्ष होगा। राज्यपाल समेत इस बोर्ड के सदस्य दस से ज्यादा नहीं हो सकते। नौ सदस्यों की घोषणा राज्यपाल अपनी इच्छा से करते हैं जिनमें दो सदस्य हिन्दू धर्म और संस्कृति से जुड़े हुये होते हैं। दो महिला सदस्य भी हिन्दू धर्म और संस्कृति से जुड़ी हुई और महिला उत्थान के कार्य में लगी हुई, तीन सदस्य जो प्रषासन, कानूनी और वित्ताीय स्थिति को देखने वाले और दो सदस्य जम्मू कश्मीर राज्य से प्रमुख हिन्दू के नाते से बोर्ड के सदस्य होते हैं।

वर्ष 2004 में यात्रा की अवधि भी एक महीने से बढ़ाकर दो महीने की कर दी गई थी। हालांकि इस विषय पर राज्य सरकार से बोर्ड की कुछ टकराहट भी हुई थी। लेकिन यात्रा ठीक ढंग से चलती रही। यात्रियों को ठीक ढंग से सुविधा मिले, उनके ठहरने के लिए शेड, शौचालयों की व्यवस्था बनें इसके लिए बोर्ड ने 2002 में राज्य सरकार से जमीन मांगी थी। यह मांग सन् 2003 में तत्कालीन मुख्यमंत्री मु्फ्ती मोहम्मद सईद की आंख की किरकिरी बन गई। कट्टरपंथी मुख्यमंत्री कभी भी यह जमीन अमरनाथ श्राईन बोर्ड को देने के हक में नहीं थे। कभी पर्यावरण तो कभी वन विभाग की मजबूरियों का वास्ता दिया गया। सरकार बदली। प्रक्रिया चलती रही। वर्श 2007 के अंत में बोर्ड ने दोबारा एक प्रस्ताव राज्य सरकार को भेजा जिसमें बालटाल में 800 कनाल जमीन देने का आग्रह किया गया।

मई 2008 में राज्य सरकार ने मंत्रीमण्डल में यह प्रस्ताव रखा जिसमें कांग्रेस, पीडीपी एवं पीपुल्स डेमोक्रेटिक फंट के मंत्री शामिल थे। पीडीपी के मंत्रियों ने ही यह जमीन श्राईन बोर्ड को देने का प्रस्ताव पारित किया। मंत्रीमंडल ने सर्वसम्मति से इस प्रस्ताव को स्वीकार किया और श्राईन बोर्ड को 800 कनाल जमीन बालटाल में निम्न शर्तों के साथ दी गईं -

1. श्राईन बोर्ड इस भूमि के बदले 2 करोड़ 31 लाख, 30 हजार 4 सौ रूपये अदा करे।
2. श्राईन बोर्ड को भूमि अस्थाई तौर पर दी गई है और यात्रा समाप्ति के बाद यह जमीन स्वत: वन विभाग के अधीन आ जायेगी।
3. श्राईन बोर्ड इस भूमि पर अस्थाई निर्माण ही कर सकता है।
4। श्राईन बोर्ड इस भूमि पर से कोई पेड़ नहीं काट सकता तथा जितने पेड़ है उसमें नये पेड़ और लगायेगा।

श्राईन बोर्ड ने इन सब शर्तों को स्वीकार किया। सभी विभागों ने जिनमें पर्यावरण तथा वन विभाग भी अनापत्ति प्रमाण पत्र जारी कर दिये।

सरकार ने गर्वनमेंट आर्डर नम्बर 184 दिनांक 26-5-2008 को एक आदेश जारी किया जिसमें मंत्रीमण्डल निर्णय 947 दिनांक 20-5-2008 का जिक्र करते हुये लिखा कि ''सिंध फारेस्ट डिवीजन'' की 39।88 हैक्टेयर जमीन श्रीअमरनाथ श्राईन बोर्ड को बालटाल और दोमेल में भवन और ढांचा बनाने के लिए दी जाती है। रांगा से बालटाल के लिए 9 हैक्टेयर तथा बालटाल में शिविर बनाने के लिए 30.88 हैक्टेयर जमीन दी गई। इसमें एक शब्द Diversion का प्रयोग किया गया कहीं भी Sale या Transfer शब्द का इस्तेमाल नहीं किया गया। इससे सरकार की नियत पर शक होना लाजमी था।

पीडीपी के नेता यह सहमति देने के बाद कुछ सोचने पर मजबूर हुये। उन्हें लगा कि शायद कहीं कोई गलती हो गई है। लेकिन बोर्ड को जमीन देने के बारे में स्वीकृति तो इन लोगों ने स्वयं ही दी थी। अब क्या किया जाये? उन्होंने इसके लिए कांग्रेस और अलगाववादियों को आगे कर दिया। और शुरू हो गया श्रीनगर में आतंकियों और अलगाववादियों का प्रदर्शन। जगह-जगह नारेबाजी होने लगी, भीड़ का संचालन अलीशाह गिलानी जैसे अलगाववादी नेता करने लगे। मीरबाईज फारूख साथ देने लगे। कश्मीर में पाकिस्तानी झण्डे सरेआम पुलिस की नाक के नीचे लाल चौक और अन्य महत्वपूर्ण स्थानों पर फहराये जाने लगे। पाकिस्तान जिन्दाबाद हर तरफ गूंजने लगा। मस्जिदों में भड़काऊ भाषण जलती आग पर तेल की तरह काम करने लगे। साम्प्रदायिकता और मुस्लिम कट्टरवाद की आग को भड़काया जाने लगा क्योंकि यात्रा शुरू होने के दिन नजदीक आने लगे। पुलिस तो प्रदर्शनकारियों की सुरक्षा के लिए तैनात की जाती थी न कि उनको रोकने या खदेड़ने के लिए। अलगाववादी नहीं चाहते थे कि यात्रा ठीक से सम्पन्न हो।

सरकार ने 6 मई, 2008 को नेशनल कांफ्रेंस के नेता मुस्तफा कमाल की अध्यक्षता में जो कमेटी बनाई थी उसने 11 जून, 2008 को पर्यावरण का वास्ता देकर यात्रा की अवधि को कम करने की सिफारिश की। इस कमेटी ने यह भी कहा कि इस यात्रा से स्थानीय व्यापारियों को कोई लाभ नहीं होता तथा सिन्धु और लिददर नदियां प्रदूशित होती हैं। इससे कश्मीरियों के प्रदर्शन बढ़ने लगे। कांग्रेस, पीडीपी और नेशनल कांफ्रेंस तीनों ने अलगाववादी और आतंकवादियों का सहारा लेते हुये इस प्रदर्शन को उग्र रूप देना शुरू कर दिया।

अत्यंत खतरनाक साजिश रची गई। अलगाववादी नेता मीरवाईज उमर फारूख, तहरीके हुर्रियत के नेता सईद गिलानी, जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के यासिन मलिक, डेमोक्रेटिक पार्टी के शबीर शाह सरीखे नेता कांग्रेस और पीडीपी की शह पर आपसी मतभेद भुला कर खुलेआम देशद्रोह की बाते करते हुये यह जमीन सरकार को वापिस लेने के लिए दबाव बनाने लगे।

पीडीपी ने एक और चाल चलते हुये अपने नेता और प्रदेश के उपमुख्यमंत्री मुजफ्फर बेग से यह बयान दिलवा दिया कि राज्यपाल के सचिव अरूण कुमार इस्लाम विरोधी हैं। इस पर ही बस नहीं हुई उलटे अरूण कुमार पर कश्मीर का वातावरण बिगाड़ने और कश्मीरियों को बदनाम करने के खिलाफ अदालत में केस दर्ज करवा दिया। श्री अरूण कुमार पर पीडीपी के जनरल सेक्टरी ने एफआईआर भी दर्ज करवाई। ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि श्री अरूण कुमार नेशनल कांफ्रेंस के नेता मुस्तफा कमाल द्वारा की गई सिफारिश के खिलाफ बोले थे।

वास्तव में पीडीपी और कांग्रेस अलगाववादी और आतंकवादियों के ऐजेंडे पर काम करना चाहती थी और कश्मीर में फिर से 1988-89 की स्थिति बनाकर वहां से भारत तथा भारतीय चिन्हों को समाप्त करना चाहती थी। मसला केवल 800 कनाल जमीन का नहीं इसकी आड़ में अलगाववादी सेना और अर्धसैनिक बलों द्वारा प्रयोग की जा रही आठ लाख कनाल जमीन से सेना और अर्धसैनिक बलों को हटाना चाहते हैं। पीडीपी खुलकर सामने आई और उसने सरकार से अपना समर्थन वापिस लेते हुये मंत्रीमण्डल से इस्तीफा दे दिया।

25 जून, 2008 को राज्य के नये राज्यपाल एन.एन. वोहरा ने जम्मू-कश्मीर में कदम रखा। श्री वोहरा वह व्यक्ति हैं जो भारत के गृह सचिव रहते हुये कईं बार तथाकथित शांति वार्ता में भाग ले चुके हैं। इसलिए उनके अलगाववादी नेताओं से काफी निकट के संबंध हैं। उनके आते ही एन।सी., पीडीपी व कांग्रेस के नेताओं ने उन्हें घेर लिया। उमर अब्दुल्ला, महबूबा मुफ्ती ने कश्मीर की तथाकथित खतरनाक परिस्थितियों का हवाला देते हुये स्वयं होकर उन्हें जमीन वापिस करने का सुझाव दिया। राज्यपाल ने उनके सुझाव को मानते हुये यात्रा की सुरक्षा और व्यवस्था सरकार को सौंप दी और केवल पवित्र गुफा में पूजा-पाठ का ही कार्य बोर्ड के पास रखा। जब सुरक्षा और व्यवस्था बोर्ड के पास नहीं रहीं तो जमीन की भी आवष्यकता नहीं रही और सरकार ने बोर्ड को दी जमीन का आबंटन रद्द कर दिया। बोर्ड का गठन विधानसभा में विशेष एक्ट के द्वारा हुआ था जिसमें स्पष्ट प्रावधान था कि यात्रा की सारी व्यवस्था बोर्ड करेगा। राज्यपाल ने वह सारी व्यवस्था सरकार को सौंप दी। विधानसभा में पारित एक्ट में राज्यपाल कोई बदल नहीं कर सकते ऐसा करके श्री वोहरा ने अपने राज्यपाल की गरिमा से तो मजाक किया ही और श्री अमरनाथ श्राईन बोर्ड के संविधाान को ही नहीं नकारा बल्कि विधानसभा को भी नकारते हुये अपने कांग्रेसी मुख्यमंत्री के इशारे पर हिन्दू विरोधी कृत्य भी किया। जबकि श्राईन बोर्ड का अध्यक्ष कोई भी ऐसा निर्णय नहीं ले सकता। इस प्रकार के निर्णय लेने के लिए नौ सदस्यों में से पांच सदस्यों की सहमति होना अनिवार्य है। परन्तु श्री वोहरा ने सहमति लेना तो दूर की बात है बोर्ड के सदस्यों को सूचित भी नहीं किया। जो सरासर बोर्ड और जम्मू के लोगों से धोखा है।

सरकार ने मंत्रीमण्डल में प्रस्ताव पारित कर यात्रा पर्यटन विभाग को सौंप दी। सरकार और राज्यपाल के इस षडयंत्र से अपनी आस्था और हिन्दू भावनाओं से खिलवाड़ होता देख जम्मू के लोगों में भयंकर रोश उत्पन्न हो गया। क्योंकि 1998 में नेकां के काले कारनामो के तहत जब कश्मीर के मुससलमानों को जम्मू के सिदड़ा में 623 कनाल वन विभाग की जमीन दी गई थी, 15 दिसम्बर 2004 को राजौरी में बाबा गुलामशाह बादशाह यूनिवर्सटी के लिए 4800 कनाल जमीन दी गई थी, सन् 2000 में कश्मीर के पंपोर में इस्लामी यूनिवर्सटी के लिए वन विभाग की जमीन दी गई थी, जम्मू के बठिडीं में वन विभाग के संरक्षकों, मंत्रियों, तथा आतंकवादियों द्वारा हजारों कनाल जंगल की जमीन काट कर उस पर कब्जा कर लिया था तो किसी ने कोई आपत्ति नहीं जताई थी।

परन्तु सरकार के इस कृत्य के बाद जम्मू के लोगों का 67 साल से दबा हुआ गुस्सा जो चिंगारी के रूप में अंदर ही अंदर फैल रहा था, लावा बनकर फूट पड़ा। लखनपुर से लेकर रामबन तक, बनी बसोहली से लेकर पुंछ तक हिन्दू सारे मतभेद भुलाकर एक ही आवाज में सरकार के खिलाफ उठ खडे हुये। शहरों से लेकर गांव-गांव तक सरकार और अलगाववादियों व आतंकवादियों की हिन्दू विरोधी नीतियों के खिलाफ प्रदर्शन शुरू हो गये। इस आंदोलन को चलाने के लिए श्रीअमरनाथ यात्रा संघर्ष समिति के नाम से जम्मू के प्रबुध्दजनों ने एक समिति स्थापित की। सरकार की मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति, अलगाववादियों को शह तथा लोकतांत्रिक ढंग से प्रदर्शन कर रहे शिव भक्तों पर दमन चक्र के कारण अब यह आंदोलन राष्ट्रव्यापी बन कर कितनों को जलायेगा, कहा नहीं जा सकता है। देश के राजनेताओं को यह बात समझ लेनी चाहिए कि जिस दिन भगवान शंकर का तीसरा नेत्र खुलेगा, महा प्रलयंकारी होगा। (लेखक श्रीअमरनाथ यात्रा संघर्ष समिति दिल्ली के प्रवक्ता हैं।)

Thursday 7 August, 2008

अखण्ड भारत


-अखण्ड भारत- यह सांस्कृतिक संकल्पना है, राजनैतिक नहीं।

-जिस तरह स्वाधीनता से पहले प्रत्येक राष्ट्रभक्त के लिए स्वाधीनता की भावना प्रेरणा का मुख्य स्रोत हुआ करती थी उसी तरह स्वाधीनता के बाद अखण्ड भारत का स्वप्न प्रत्येक राष्ट्रभक्त के लिए प्रेरणा का मुख्य स्रोत होना चाहिए और इस स्वप्न को साकार करने के लिये उसको सतत् क्रियाशील रहना चाहिए।

-विभाजन का मूल कारण है राष्ट्र और संस्कृति के बारे में भ्रामक धारणा। अंग्रेजों के जाल में हमारा नेतृत्व फंसा। तबसे राष्ट्र और संस्कृति के विषय में सर्वसामान्य जनता की भी धारणा भ्रामक हो गई। मिला-जुला राष्ट्र और मिली-जुली संस्कृति के विचार के कारण एक राष्ट्र, एक संस्कृति की बात गलत लगने लगी।

-स्वाधीनता संग्राम के एक प्रमुख नेता जवाहरलाल नेहरू कहा करते थे कि "We are a nation in the making" अर्थात् ''हम राष्ट्र बनने की प्रक्रिया में है''। अंग्रेजों ने यह संभ्रम फैलाने का प्रयास किया कि भारत कभी एक राष्ट्र रहा ही नहीं, उन्‍होंने इसे एक राष्ट्र बनाया है।

-अंग्रेजों की शह से पुष्ट हुई मुस्लिम लीग ने 1940 में देश के विभाजन की मांग की, अंग्रेजों ने 3 जून 1947 को विभाजन की योजना प्रस्तुत की और 14-15 अगस्त 1947 की मध्यरात्रि को देश का विभाजन हो गया।

विभाजन के बीज:
1906 में की गई पृथक निर्वाचक-मण्डल की मांग को भारत विभाजन की दिशा का पहला कदम कहा जा सकता है। यह स्पष्ट रूप से मुस्लिम अलगाववाद था और इसे अंग्रेजों का समर्थन प्राप्त था।
1906 में अड़तालीसवें शिया इमाम आगा खां के नेतृत्व में एक प्रतिनिधिमंडल लार्ड मिण्टो से मिला। इसकी प्रमुख मांग थी- मुसलमानों के लिए पृथक् निर्वाचक मण्डल। लार्ड मिण्टो ने इस मांग के प्रति अपनी सहमति जाहिर की और आगे चलकर 1909 के मार्ले-मिण्टो सुधारों में इसे सम्मिलित किया।
तुष्टीकरण के अंतर्गत शर्तों के आधार पर मुसलमानों को स्वाधीनता संग्राम में सम्मिलित करने के लिए कांग्रेस ने राष्ट्रीय मानबिन्दुओं के साथ समझौते किए। 1923 में कांग्रेस के काकीनाड़ा अधिवेशन में प्रख्यात गायक पं। पलुस्कर ने जैसे ही 'वन्देमातरम्' का गायन प्रारंभ किया वैसे ही कांग्रेस अध्यक्ष मोहम्मद अली ने यह कहते हुए गायन को रोकने का प्रयास किया कि इसमें मूर्ति पूजा है इसलिए इससे मुसलमानों की भावनाओं को ठेस पहुंचती है मंच पर आसीन एक भी नेता ने इसका विरोध नहीं किया। पं. पलुस्कर ने मोहम्मद अली को यह कहकर चुप कर दिया कि मुझे यहां 'वन्देमातरम्' गाने के लिए बुलाया गया है और मैं तो गाऊंगा। इसके बाद उन्होंने संपूर्ण 'वन्देमातरम्' गाया और उस दौरान मोहम्मद अली मंच से उठकर चले गये। आगे चलकर 1937 में यह देखने के लिए एक समिति बनाई गई कि 'वन्देमातरम्' का कौन सा हिस्सा मुसलमानों के लिए आपत्तिाजनक है। उनके निष्कर्ष के अनुसार ' वन्देमातरम्' के केवल पहले दो पद ही गाये जायेंगे ऐसा तय हुआ और आगे का 'वन्देमातरम्' निकाल दिया गया। आज भी हमारे स्वीकृत राष्ट्रगीत 'वन्देमातरम्' में पहले दो पद ही हैं, संपूर्ण 'वन्देमातरम्' नहीं है।

मोहम्मद अली जिन्ना की अध्यक्षता में 1927 में प्रमुख मुस्लिम नेताओं की एक बैठक हुई। इसमें उनकी मांगें ''चार सूत्र'' के रूप में प्रस्तुत की गई इस समय तक पृथक निर्वाचन-मंडल वाली बात निष्प्रभावी हो चुकी थी, अत: चार सूत्रों के बदले पृथक निर्वाचक मंडल के स्थान पर आरक्षण वाले संयुक्त निर्वाचन क्षेत्रों की बात स्वीकार करने की बात कही गई-

(1) सिंध का मुंबई प्रांत से अलग किया जाये
(2) पश्चिमोत्तार सीमा प्रांत और ब्लूचिस्तान का स्तर बढ़ाकर उन्हें पूर्ण गवर्नर का प्रांत बनाया जाये।
(3) पंजाब और बंगाल इन मुस्लिम बहुल प्रांतों में जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व दिया जाये।
(4) केन्द्रीय विधानमंडल में कम से कम एक तिहाई सदस्य मुसलमान हों।

सभी मांगें खतरनाक थीं। विशेष रूप से सिंध को मुंबई से अलग करने की। क्योंकि इससे सिंध मुस्लिम बहुल प्रांत बननेवाला था। (सिंध के मुस्लिम बहुत प्रांत बनने से ही विभाजन के समय वह पाकिस्तान में शामिल हो गया, जबकि यदि वह हिन्दू-बहुल मुंबई प्रांत का हिस्सा होता तो सिंध आज भारत में होता।) कांग्रेस ने पहली तीन मांगें स्वीकार कर लीं। जब जिन्ना ने देखा कि कांग्रेस इतना झुक रही है तो उसने 1928 में ''जिन्ना के चौदह सूत्र' प्रस्तुत कर दिए। इनमें पिछली सारी मांगें तो थी हीं, साथ में कुछ और मांगें भी थीं, जिनमें प्रमुख थी-

(1) पंजाब, बंगाल और पश्चिमोत्तार सीमाप्रांत का कोई ऐसा पुनर्गठन न हो जिससे उनका मुस्लिम बाहुल्य समाप्त हो।
(2) केन्द्रीय और सभी प्रांतीय मंत्रिकंडलों में कम से कम एक तिहाई मुस्लिम हों।

साथ ही इसमें फिर से पृथक् निर्वाचक मण्डल की मांग की गई थी। इसमें यह भी घोषणा की गई कि मुसलमान मात्र एक समुदाय नहीं, बल्कि विशेष दृष्टि से स्वयं में एक राष्ट्र है। इस तरह कांग्रेस के मुस्लिम तुष्टीकरण के कारण अलगाववादी मुस्लिम नेताओं की मांगें बढ़ती ही गई।

1930 में लंदन में हुए प्रथम गोलमेज सम्मेलन का कांग्रेस ने नमक सत्याग्रह के कारण बहिष्कार किया इस कारण वह निष्फल हुआ। 1939 में हुए दूसरे गोलमेज सम्मेलन में कांग्रेस की ओर से गांधीजी सम्मिलित हुए। आगा खां को मुसलमानों के प्रतिनिधि के रूप में चुना गया। इसमें कोई सर्वसम्मत निष्कर्ष नहीं निकला परन्तु इस सम्मेलन में ही पहली बार 'पाकिस्तान'' यह शब्द अस्तित्व में आया।
1939 में जब द्वितीय विश्वयुध्द आरंभ हुआ तब भारतीयों का समर्थन और सहयोग प्राप्त करने के लिए वाइसराय लिनलिथगोने गांधीजी के साथ जिन्ना को भी वार्ता क के लिए आमंत्रित किया। इस तरह अंग्रेजों ने जिन्नों को गांधीजी के बराबरी का स्थान दिया। कांग्रेस ने युध्द समाप्ति के बाद भारत के लिए पूर्ण स्वाधीनता की मांग की। परन्तु मुस्लिम लीग ने हमेशा की तरह केवल अलगाववाद पर आधारित मुस्लिम हित ही सामने रखा, भारत की स्वाधीनता के संबंध में कोई बात नहीं की। उन्होंने दो मांगें की-

1) कांग्रेस-शासित प्रांतों में मुसलमानों को न्याय और उचित व्यवहार मिलना चाहिए।
(2) मुस्लिम लीग की सहमति के बिना भारत की संवैधानिक प्रगति के प्रश्न पर न तो कोई घोषणा की जाये और न ही कोई संविधान बनाया जाये।

अंग्रेजों ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अखिल इस्लामवाद को खाद-पानी देना प्रारंभ किया ताकि युध्द के दौरान मुस्लिम देश उनके निकट आ जायें। इसका लाभ भी मुस्लिम लीग उठा रही थी। ऐसे वायुमंडल में 1940 के लाहौर अधिवेशन में मुस्लिम लीग ने मुसलमानों के लिए अलग देश की मांग की। इसे ''पाकिस्तान प्रस्ताव'' के रूप में जाना जाता है।

1939 में भारत के कम्युनिस्ट द्वितीय विश्वयुध्द में अंग्रेजों के विरूध्द थे क्योंकि जर्मनी के हिटलर ने रूस के स्टालिन से संधि की थी। परन्तु जब जर्मनी ने 1941 में रूस पर आक्रमण कर दिया तब अपनी पहले की भूमिका बदलकर वे अंग्रेजों के समर्थक बन गए। इस कारण उन्होंने भी 1942 के ''भारत छोड़ों'' आंदोलन का विरोध किया। साथ ही उन्होंने मुस्लिम लीग की देश विभाजन की मांग का समर्थन किया और अपने अनेक मुस्लिम सदस्यों को निर्देश दिया कि द्वि-राष्ट्र सिध्दांत को बौध्दिक बल देने के लिए वे मुस्लिम लीग में शामिल हों। उन्‍होंने तो ऐसा कहना भी प्रारंभ किया कि प्रत्येक भाषाई इकाई अलग राष्ट्र है और उन्हें अलग होने का अधिकार है। इस तरह अंग्रेज-लीग-कम्युनिस्ट गठबधंन भारत की स्वाधीनता और अखण्डता की जड़ें काटने में जुट गया।

1945-46 में जो चुनाव हुए उनमें कांग्रेस 'अखण्ड भारत' के नारे के साथ चुनाव मैदान में उतरी तो मुस्लिम लीग 'पाकिस्तान' के नारे के साथ। इस चुनाव में जहां एक ओर सभी सामान्य क्षेत्रों में कांग्रेस विजयी रही और केन्द्रीय धारा सभा में उसे 91।3 प्रतिशत मत प्राप्त हुए वहीं दूसरी ओर मुस्लिम लीग को सभी मुस्लिम सीटों पर विजय मिली। उसके मतों का प्रतिशत 86.8 था। इस बात से लीग के नेता उन्मत्ता हुए और वे खुली लड़ाई की चुनौतियां देने लगे।

कांग्रेस ने 8 मार्च 1947 की बैठक में इस घोषणा का स्वागत किया और मांग की कि पंजाब और बंगाल का सांप्रदायिक आधार पर विभाजन किया जाये। इस तरह कांग्रेस ने यह संकेत दे दिया कि उसने पाकिस्तान की मांग को सिध्दांत रूप में स्वीकार कर लिया है और वह आधा पंजाब और आधा बंगाल भारत में लाने के लिए प्रयत्नशील है।

माउंटबेटन ने 2 जून को मेनन योजना सबके सामने रखी। कांग्रेस ने इसे इस शर्त पर स्वीकार किया कि मुस्लिम लीग भी इसे बिना किसी शर्त के स्वीकार करे। 2 जून की रात्रि को जब माउंटबेटन ने जिन्ना से भेंट की तो उसने कहा कि लीग को अखिल भारतीय परिषद की सहमति प्राप्त करने के लिए एक सप्ताह चाहिए। इस पर माउंटबेटन ने उसे स्पष्ट चेतावनी दी कि यदि तुरंत स्वीकृति नहीं मिली तो कांग्रेस भी अपनी स्वीकृति वापस ले लेगी और उसके हाथ से पाकिस्तान प्राप्ति का अवसर सदा-सदा के लिए निकल जाएगा। तब जिन्ना ने भी अपनी स्वीकृति दी।

3 जून को एटली ने हाउस ऑफ कॉमंस में योजना की अधिकृत घोषणा की इसलिए इसे '3 जून योजना' कहा गया। इसमें सत्ता हस्तातंरण की तिथि जून 1948 से पीछे खिसककर 15 अगस्त 1947 कर दी गई।

14-15 जून को अखिल भारतीय कांग्रेस समिति की बैठक में 3 जून योजना को स्वीकृति दी जानी थी। वरिष्ठ नेताओं में से केवल बाबू पुरुषोत्ताम दास टंडन ने विभाजन की 3 जून योजना का विरोध किया, परंतु उनके भाषण पर तालियों की भारी गड़बड़ाहट हुई। ऐसे समय गांधीजी ने 3 जून योजना का समर्थन किया। प्रस्ताव के पक्ष में 157 और विपक्ष में 29 मत पड़े। 32 सदस्य तटस्थ रहे। इस तरह वह प्रस्ताव पारित हो गया। (यहां यह प्रश्न पूछा जा सकता है कि जिस कांग्रेस ने 1945-46 का चुनाव ''अखंड भारत'' के नारे पर लड़ा और जीता उसे विभाजन स्वीकार करने का क्या नैतिक अधिकार था?) इस प्रकार स्वाधीनता संग्राम का नेतृत्व करने वाली कांग्रेस ने विभाजन को स्वीकृति देकर राष्ट्रीय एकता और अखंडता के मूल प्रश्न पर आत्मसमर्पण कर दिया जिसके परिणामस्वरूप 14-15 अगस्त 1947 की मध्य रात्रि को देश का दुर्भाग्यपूर्ण विभाजन होकर उसे स्वाधीनता मिली।

मुस्लिम लीग की हठधर्मिता और हिंसात्मक कारवाइयों के कारण विवश होकर कांग्रेस ने विभाजन को स्वीकृति दी। परंतु यदि यह स्वीकृति नहीं दी जाती तो क्या होता? अधिक से अधिक गृहयुध्द होता। किंतु क्या देश की अखंडता के लिए गृहयुध्द नहीं किया जा सकता? अमरीकी इतिहास में अब्राहम लिंकन ने देश विभाजन और गृहयुध्द में से गृहयुध्द को चुना और अंततोगत्वा वे देश को अखंड रखने में सफल हुए। आज कोई भी उन्हें युध्दपिपासु नहीं कहता, उन्हें महापुरुष माना जाता है।

कभी-कभी ऐसा विचार भी मन में आ सकता है कि जब हमारे श्रध्देय नेताओं ने विभाजन स्वीकार कर लिया तो हमने भी उसे स्वीकार कर लेना चाहिए। परंतु जरा विचार करें। जितने भी लोगों ने स्वाधीनता के लिए प्रयास किये, उनकी आंखों के सामने अखंड भारत था या खंडित भारत। इसका उत्तर - अखंड भारत।

द्वितीय विश्वयुध्द के बाद जर्मनी का विभाजन हो गया। इतनी सख्ती थीं कि अब यह विभाजन सदैव के लिए है ऐसा लगने लगा था परन्तु आज जर्मनी फिर से अपने अखण्ड रूप में है। वियतनाम का एकीकरण हो चुका है।

अखंड भारत के विषय को आम लोगों के हृदय तक पहुंचाने के लिए निम्न उपाय करने होंगे- -'अखण्ड भारत स्मृति दिवस' का आयोजन करना, ताकि युवा पीढी के सामने अखण्ड भारत का सपना बरकरार रहे।
-अखण्ड भारत का चित्र अपने कमरों में लगाना, यह हमारे आंखों के सामने रहेगा जिससे हमारा संकल्प और मजबूत होता रहे।

महापुरूषों के विचार:

मैं स्पष्ट रूप से यह चित्र देख रहा हूं कि भारतमाता अखण्ड होकर फिर से विश्वगुरू के सिंहासन पर आरूढ है।
-अरविन्द घोष

आइये, प्राप्त स्वतंत्रता को हम सुदृढ़ नींव पर खड़ी करें अखंड भारत के लिए प्रतिज्ञाबध्द हों।
-स्वातंत्र्यवीर सावरकर

अखंड भारत मात्र एक विचार न होकर विचारपूर्वक किया हुआ संकल्प है। कुछ लोग विभाजन को पत्थर रेखा मानते हैं। उनका ऐसा दृष्टिकोण सर्वथा उनुचित है। मन में मातृभूमि के प्रति उत्कट भक्ति न होने का वह परिचायक है।
-पंडित दीनदयाल उपाध्याय

पाकिस्तान तो इस्लामी भावना के ही विपरीत है। यह कैसे कहा जा सकता है कि जिन प्रांतों में मुसलमान अधिक है वे पाक हैं और दूसरे सब प्रांत नापाक हैं।
-मौलाना अबुल कलाम आजाद

पश्चाताप से पाप प्राय: धुल जाता है किंतु जिनकी आत्मा को विभाजन के कुकृत्य पर संतप्त होना चाहिए था वे ही लोग अपनी अपकीर्ति की धूल में लोट लगाकर प्रसन्न हो रहे हैं। आइए, जनता ही पश्चाताप कर ले-न केवल अपनी भूलचूक के लिए, बल्कि अपने नेताओं के कुकर्मों के लिए भी।
-डा. राम मनोहर लोहिया

हम सब अर्थात् भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश इन तीनों देशों में रहने वाले लोग वस्तुत: एक ही राष्ट्र भारत के वासी हैं। हमारी राजनीतिक इकाइयां भले ही भिन्न हों, परंतु हमारी राष्ट्रीयता एक ही रही है और वह है भारतीय।
-लोकनायक जयप्रकाश नारायण

पिछले चालीस वर्ष का इतिहास इस बात का गवाह है कि विभाजन ने किसी को फायदा नहीं पहुंचाया। अगर आज भारत अपवने मूल रूप में अखंडित होता तो न केवल वह दुनिया की सबसे बड़ी ताकत बन सकता था, बल्कि दुनिया में अमन-चैन कायम करने में उसकी खास भूमिका होती।
-जिए सिंध के प्रणेता गुलाम मुर्तजा सैयद

मुझे वास्तविक शिकायत यह है कि राष्ट्रवादी मुसलमानों के प्रति न केलव कांग्रेस अपितु महात्मा गांधी भी उदासीन रहे। उन्होंने जिन्ना एवं उनके सांप्रदायिक अनुयायियों को ही महत्व दिया। मुझे पूरा विश्वास है कि यदि उन्होंने हमारा समर्थन किया होता तो हम जिन्ना की हर बात का खंडन कर देते और विभाजनवादी आंदोलन के आरंभ काल में पर्याप्त संख्या में मुसलमानों को राष्ट्रवादी बना देते।
-न्यायमूर्ति मोहम्मद करीम छागला